ऐसा माना जाता है की जब कोई दीया बुझने वाला हो तो उसके ठीक पहले उसकी लौ सबसे तेज होती है वो सबसे अधिक रोशनी देता है ऐसा कई कुछ इंसानों के भी साथ होता नजर आता है। अब उदाहरण के लिए हम मशहूर शायर जां निसार अख्तर साहब को ले तो हम देखेंगे की उनकी सबसे अंतिम फिल्म रजिया सुल्तान में उनकी शायरी का बेहतरीन नमूना देख सकते हैं।कमाल अमरोही की फिल्म रजिया सुल्तान का लाजवाब संगीत दिया था खय्याम ने। उन्होंने इसमें दो जबरदस्त शायरों निदा फाजली और जां निसार अख्तर से गीत लिखवाए। अख्तर साहब ने जो गीत लिखा था उसको कब्बन मिर्जा ने अपनी अनूठी आवाज में गाकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। ये पूरी गजल पढ़िए और ज्यादा आनंद लेना हो तो इस सुनिए।
आई ज़ंजीर की झनकार ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ किसका ग़िरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे
जाने यह कौन मेरी रूह को छूकर ग़ुज़रा
एक क़यामत हुई बेदार ख़ुदा ख़ैर करे
लम्हा लम्हा मेरी आँखों में खींची जाती है
एक चमकती हुई तलवार ख़ुदा ख़ैर करे
ख़ून दिल का न छलक जाए कहीं आँखों से
हो न जाए कहीं इज़हार ख़ुदा न करे।।
इसी फिल्म का एक और गीत बेहद मशहूर हुआ था जो जां निसार अख्तर का ही लिखा हुआ था। इसे लता मंगेशकर ने अपनी मिठी आवाज में लाजवाब ढंग से गाया है।
ऐ दिल-ए-नादान
ऐ दिल-ए-नादान
आरज़ू क्या है?
जुस्तजू क्या है?
ऐ दिल-ए-नादान
ऐ दिल-ए-नादान
आरज़ू क्या है?
जुस्तजू क्या है?
ऐ दिल-ए-नादान
हम भटकते हैं
क्यूं भटकते हैं?
दश्तो – सेहरा में
ऐसा लगता है
मौज प्यासी है
अपने दरिया मैं
कैसी उलझन है?
क्यूं ये उलझन है?
एक साया सा
रूबरू क्या है?
ऐ दिल-ए-नादान
ऐ दिल-ए-नादान
आरज़ू क्या है?
जुस्तजू क्या है?
क्या कयामत है?
क्या मुसीबत है?
कह नहीं सकते
किसका अरमान है
जिन्दगी जैसे
खोई – खोई है
हैरान – हैरान है
ये ज़मीं चुप है
आसमा चुप है
फिर ये धड़कन सी
चारसू क्या है?
ऐ दिल-ए-नादान
ऐ दिल-ए-नादान।
शायरों के खानदान में हुआ जन्म
जाँ निसार अख़्तर का जन्म 18 फरवरी 1914 को हुआ था। जां निसार को ऊर्दू शायरी विरासत में मिली थी। इनके परदादा ’फ़ज़्ले हक़ खैराबादी’ ने मिर्ज़ा गालिब के कहने पर उनके दीवान का संपादन किया था। बाद में 1857 में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ ज़िहाद का फ़तवा ज़ारी करने के कारण उन्हें ’कालापानी’ की सजा दी गई। जाँ निसार अख्तर के पिता ’मुज़्तर खैराबादी’ भी मशहूर शायर थे।
जांनिसार अख्तर देश के शायद सबसे पहले उर्दू के गोल्ड मेडलिस्ट होंगे. उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एमए किया था. हिन्दुस्तान के बंटवारे से पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उन्हें उर्दू पढ़ाने का काम मिला. दंगों की वजह से वे भोपाल चले आये।
साफिया अख्तर और जांनिसार अख्तर
सन् 1943 में जाँ निसार की शादी ख्यात शायर ’मज़ाज लखनवी’ की बहन ’सफ़िया सिराज़ुल हक़’ से हुई थी। उन्हीं से संवाद लेखक और गीतकार जावेद अख्तर का जन्म हुआ था। दंगों के दौरान जां निसार ग्वालियर से भोपाल चले गए। वहां के हमीदिया कालेज में वे और साफिया, दोनो अध्यापन करने लगे। ये उनके संघर्ष के दिन थे। ये नौकरी रास नहीं आई और जांनिसार बंबई चले गए। बीवी साफ़िया अख्तर, बच्चे जावेद अख्तर और सलमान अख्तर को खुदा के हवाले छोड़कर।
सपनों की तलाश में बंबई आए
सन् 1949 में वे फिल्मों में काम की तलाश में बम्बई पहुंच गए। वहाँ कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, मुल्कराज आनंद, साहिर लुधियानवी से दोस्ती हुई। जब वे बंबई में संघर्ष कर रहे थे भोपाल में ही रह कर सफ़िया ने आर्थिक मदद की थी। 1953 में कैंसर से सफ़िया की मौत हो गई। कुछ साल बाद 1956 में जां निसार ने ख़दीजा तलत से शादी रचा ली।
यासमीन’ से पहचान मिली
सिनेमा की दुनिया में 1955 में फिल्म ‘यासमीन’ से उनकी नई पहचान उजागर हुई। फिर तो उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक से एक लाजवाब गीत दिए – ‘ ‘ग़रीब जान के हमको न तुम दगा देना’, , ‘ऐ दिले
साहिर की परछाई
जां निसार अख्तर के साथ यह दुर्भाग्य और सौभाग्य दोनों रहा की वो उस दौर के सबसे बड़े शायर और हिंदी सिनेमा के सबसे ज्यादा पैसे पाने वाले गीतकार साहिर लुधियानवी के सबसे करीबी दोस्तों में से एक थे। कहा जाता है कि अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ दोस्ती में गर्क कर दिए। वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे ही वो साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए, उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। उसके बाद उन्होंने जो लिखा, उससे उर्दू शायरी धनवान हुई।
निदा फ़ाज़ली ने जांनिसार पर एक किताब लिखी है – ‘एक जवान की मौत’। इसमें उन्होंने जांनिसार की जिंदगी का पूरा ख़ाका खींचा है. निदा फाजली की उनसे पहली मुलाकात जांनिसार और साहिर लुधियानवी के रिश्तों को हमारे सामने रख देती है। साहिर लुधियानवी और जांनिसार के बीच प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन वाली दोस्ती थी जो शायद बाद में तिजारती मजबूरी बनी। जांनिसार अख्तर ने एक फिल्म बनायीं थी जिसका नाम था ‘बहू बेग़म’ इस फिल्म के गाने उन्होंने साहिर लुधियानवी से लिखवाए थे. फिल्म नहीं चली पर गाने हिट हुए. नतीजा, अख्तर साहब इंडस्ट्री से आउट हो गए. अब वे पूरी तरह से साहिर तक सिमट के रह गए।
साहिर साहब को महफ़िलें जमाने और उनमें ‘वाह साहिर वाह’ सुनने का शौक था. जांनिसार ‘बहू बेग़म’ के बाद एक तरह से बेरोजगार हो गए थे इस दौरान साहिर ही ने उनका हाथ थामा, दोस्ती के नाते नहीं, शायद किसी और नाते। निदा फ़ाज़ली बताते हैं कि जांनिसार अख्तर सिर्फ उनके दोस्त ही नहीं ज़रूरत से ज़्यादा जल्दी शेर लिखने वाले शायर भी थे. साहिर को एक पंक्ति सोचने में जितना समय लगता था, जांनिसार उतने समय में पच्चीस पंक्तियां जोड़ लेते थे। बकौल निदा फाज़ली ‘एक तरफ़ ज़रूरत थी, दूसरी और दौलत।
निदा कहते हैं कि साहिर लुधियानवी जांनिसार को अपना दरबारी बना रहने के लिए हर महीने एक तय शुदा रकम देते थे और इसके बदले जांनिसार हमेशा ‘हां साहिर’ कहते थे। बाद इसके फिर कुछ यूं हुआ कि ये दोस्ती किसी बात पर टूट गयी. साहिर लुधियानवी अपने ‘रंग’ में आ गए, जांनिसार, खानदानी आदमी थे, तू-तड़ाक न सुन पाए, दोस्ती टूट गयी।
बेग़म अख्तर के लिए महज तीन मिनट में नज्म लिख दी
जांनिसार के छोटे बेटे सलमान अख्तर एक किस्से को याद करके बताते हैं कि एक बार किसी खास महफ़िल में बेग़म अख्तर कुछ कलाम सुना रही थीं।तभी अचानक उन्होंने देखा कि जांनिसार भी महफ़िल में चले आये हैं। बेग़म अख्तर ने सिर्फ दो ग़ज़लें ही गाई थीं कि उन्होंने मेज़बान से थोड़ी देर के लिए मोहलत मांगी और चुपके से उन्हें कहा कि जांनिसार भी आये हैं तो बेहतर होगा कि अगर उनके पास कोई जांनिसार के कलामों की किताब हो तो वे किसी कमरे में जाकर पढ़ लेंगी और याद करके महफ़िल में सुना देंगी।
मेज़बान जांनिसार से परिचित थी, उनके पास जांनिसार की कई किताबें थी तो उन्होंने जांनिसार से जाकर ही पूछा कि वो कौन सा कलाम बेग़म अख्तर की आवाज़ में सुनना चाहेंगे।जांनिसार ने कहा कि अगर बेग़म अख्तर को इतना भरोसा है कि वे चंद ही मिनटों में कोई कलाम याद करके धुन बना लेंगी, तो वे एक नयी ग़ज़ल लिख देते हैं।वे ऊपर गए और महज़ तीन मिनट में एक ग़ज़ल लिख कर छोड़ आये.।बेग़म अख्तर ने उसे पढ़ा, याद किया और धुन बना ली. वह कलाम था।
सुबह के दर्द को, रातों की जलन को भूलें,
किसके घर जाये कि उस वादा शिकन को भूलें.
जिंदगी के बारे में जां निसार कुछ इस अंदाज में अपनी राय जाहिर करते हैं
फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों
ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारों
अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्मा लिये दर पे खड़ी है यारों
उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही
बात इतनी सी है के ज़िद आन पड़ी है यारों
फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर
सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारों
किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारों
जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारों।
रोमांटिक शायर
जाँनिसार अख़्तर पर कम्युनिस्ट विचारधारा का असर बेहद साफ था। वे विद्रोही या कहें बोहेमियन शायर थे। इसके बावजूद बुनियादी तौर पर वे रूमानी लहजे के शायर थे। उनकी शायरी में जो रोमांस है, वो ही उसका सबसे अहम पहलू है। वास्तव में रोमांस जाँनिसार अख़्तर का ओढ़ना बिछौना था। यही वजह है कि उनके गीतों में हम प्रेम की खुशबू को महकता हुआ पाते हैं।
1आँखों ही आँखों में इशारा हो गया’-,सीआईडी
‘2 ये दिल और उनकी निगाहों के साये
3 ‘आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे – ‘प्रेम परबत’
4आज रे आजा रे आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा
दिल की प्यास बुझा जा रे नूरी नूरी–नूरी
देश की एकता को बढ़ावा देने की कोशिश
जां निसार अख्तर ने देश की एकता को बढ़ावा देने की कोशिश भी अपने गीतों के जरिये की है उसका एक बेहतरीन नमूना पढ़िए
आवाज़ दो हम एक हैं
एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं
ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो
आवाज़ दो हम एक हैं
ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं
कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं
आवाज़ दो हम एक हैं
उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक से
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से
आवाज़ दो हम एक हैं!
अख्तर साहब न सिर्फ़ गज़लें लिखते थे, बल्कि नज़्में, रूबाइयाँ और फिल्मी गीत भी उसी जोश-ओ-जुनून के साथ लिखा करते थे। उनमें वतनपरस्ती कूट-कूट कर भरी थी। वह जिंदगी भर देश के जवानों को जिंदगी की सही राह दिखाते, जगाते, आगाह करते रहे –
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
जो शाने तग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं,
किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
जो रख देते हैं सीना गर्म तोपों के दहानों पर,
नजर से जिनकी बिजली कौंधती है आसमानों पर,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
जो आज़ादी की देवी को लहू की भेंट देते हैं,
सदाक़त के लिए जो हाथ में तलवार लेते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
जो पर्दे चाक करते हैं हुकूमत की सियासत के,
जो दुश्मन हैं क़दामत के, जो हामी हैं बग़ावत के,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
भरे मज्मे में करते हैं जो शोरिशख़ेज तक़रीरें,
वो जिनका हाथ उठता है, तो उठ जाती हैं शमशीरें,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
वो मुफ़लिस जिनकी आंखों में है परतौ यज़दां का,
नज़र से जिनकी चेहरा ज़र्द पड़ जाता है सुल्तां का,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
वो दहक़ां खि़रमन में हैं पिन्हां बिजलियां अपनी,
लहू से ज़ालिमों के, सींचते हैं खेतियां अपनी,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
वो मेहनतकश जो अपने बाजुओं पर नाज़ करते हैं,
वो जिनकी कूवतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
कुचल सकते हैं जो मज़दूर ज़र के आस्तानों को,
जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारख़ानों को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
झुलस सकते हैं जो शोलों से कुफ्ऱो-दीं की बस्ती को,
जो लानत जानते हैं मुल्क में फ़िरक़ापरस्ती को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
वतन के नौजवानों में नए जज़्बे जगाऊंगा,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!
मुशायरे के शायर नहीं थे
संगीतकार उमर ख़य्याम कहते हैं कि जाँ निसार अख़्तर में अल्फ़ाज़ और इल्म का खज़ाना था। एक-एक गीत के लिए वह कई-कई मुखड़े लिखते थे। दरअसल, वह मुशायरे के शायर नहीं थे। फैज अहमद फैज की तरह उनका भी तरन्नुम अच्छा नहीं होता था। अपने संघर्ष के दिनो में निदा फ़ाज़ली ने अपनी तमाम शामें उनके साथ बिताई थीं। निदा के शब्दों में ‘साहित्य में लगाव होने के कारण मैं जाँनिसार के करीब आ गया था और मेरी हर शाम कमोबेश उनके ही घर पर गुज़रती थी। मेरे जाने का रास्ता उनके घर के सामने से गुज़रता था।
जब मैं सोचता था कि उनके यहाँ न जाऊँ क्योंकि रोज़ जाता हूँ तो अच्छा नहीं लगता, तो अक्सर अपनी बालकनी पर खड़े होते थे और मुझे गुज़रता देख कर पुकार लेते थे। वो दिन जाँनिसार अख़्तर के मुश्किल दिन थे। साहिर लुधियानवी का सिक्का चल रहा था। साहिर को अपनी तन्हाई से बहुत डर लगता था। जाँनिसार इस ख़ौफ़ को कम करने का माध्यम थे जिसके एवज़ में वो हर महीने 2000 रूपये दिया करते थे। ये जो अफ़वाह उड़ी हुई हैं कि वो साहिर के गीत लिखते थे, ये सही नहीं है लेकिन ये सच है कि वो गीत लिखने में उनकी मदद ज़रूर करते थे।’ जिंदगी पर उनकी एक और मशहूर रचना, जिसे लोग आज भी गुनगुनाया करते हैं –
ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो
कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो
दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो
कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो
ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो।
फिल्मों से ज़्यादा शायरी मशहूर हुई.
अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़कत उनको सुनाने के लिए हैं
या फिर
जब ज़ख्म लगे तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए.
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फन क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
बकौल निदा फ़ाज़ली ‘जांनिसार अख्तर ने शायरी को पारंपरिक रूमानी दायरे से बाहर निकालकर यथार्थ की खुरदरी धरती पर लाकर खड़ा कर दिया.’
दरअसल, जांनिसार अख्तर नर्म लबो-लहजे के पुख्ता शायर थे. अपनी पत्नी साफ़िया अख्तर की मौत पर लिखी हुई नज़्म ‘ख़ाके दिल’ आज कल्ट का दर्ज़ा रखती है . उनकी एक और नज़्म ‘आख़िरी मुलाकात’ मैं जब वे कहते हैं।
मत रोको इन्हें मेरे पास आने दो
ये मुझ से मिलने आये हैं
मैं खुद न जिन्हें पहचान सकूं
कुछ इतने धुंधले साए हैं
तो उनके उन दिनों का तारूफ़ मिल जाता है जब वे गुमनामी में चले गए थे। जब गुमनामी से बाहर निकले तो इन्ही नज्मों ने उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान दिलवाया. कुछ और उनके कलाम जैसे ‘नज़रे बुतां’, ‘जाविदां’, ‘पिछली पहर’, ‘घर आंगन’ सब इसी कतार में नज़र आते हैं।
नेहरू के कहने पर हिन्दुस्तानी शायरी का संकलन तैयार किया
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने जां निसार अख्तर की प्रतिभा को पहचाना और पिछले तीन सौ सालों की हिन्दुस्तानी शायरी को एक जगह पर इकट्ठा करने का काम दिया। उनके निधन के बाद यह संग्रह तैयार हुआ तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे ‘हिंदुस्तान हमारा’ के नाम से रिलीज़ किया।
जांनिसार अख्तर और जावेद अख्तर की तल्खी
अपनी किताब ‘तरकश’ में जावेद अख्तर ने कुछ यूं लिखा है, ‘18 अगस्त 1976 को मेरे बाप( जांनिसार अख्तर) की मृत्यु होती है (मरने से नौ दिन पहले उन्होंने मुझे अपनी आख़िरी किताब ऑटोग्राफ करके दी थी, उस पर लिखा था-‘जब हम न रहेंगे तो बहुत याद करोगे.’ उन्होंने ठीक लिखा था .अब तक तो मैं अपने आप को एक बाग़ी और नारा बेटे के रूप में पहचानता था मगर अब मैं कौन हूं…शायरी से मेरा रिश्ता पैदाइशी और दिलचस्पी हमेशा से है. चाहूं तो कर सकता हूं. मगर आज तक की नहीं है. ये भी मेरी नाराज़गी और बग़ावत का प्रतीक है. 1979 में पही बार शे’र कहता हूं और ये शे’र लिखकर मैंने अपनी विरासत और बाप से सुलह कर ली है।
जावेद की जांनिसार से बग़ावत इसलिए थी कि जांनिसार ने उनकी मां और उनका और सलमान अख्तर का ख्याल नहीं रखा। साफ़िया बेवक्त ही इस दुनिया से रुखसत हो गयी थीं, जावेद और सलमान कभी अपनी खाला, कभी नानी के गहर पर अजनबियों की तरह ही रहे।
जब जावेद अख्तर मुंबई आये तो महज़ पांच या छह दिन ही जांनिसार अख्तर के घर पर रहे. सौतेली मां से नहीं बनी.अपनी ग़ुरबत(ग़रीबी), रिश्तेदारों के ताने, मां की मौत इन सबके लिए उन्होंने जांनिसार को ही मुजरिम माना. तभी तो जावेद के एक शे’र में लिखते है:
तल्खियां क्यूं न हो अशआर में, हम पर जो गुजरी
नसरीन मुन्नी कबीर की किताब ‘सिनेमा के बारे में जावेद अख्तर कहते हैं, ‘मेरी और मेरे वालिद यानी जांनिसार अख्तर की ये जंग खुल्लम-खुल्ला थी. और ये तब शुरू हुई जब मैं पंद्रह बरस का था। उनके घर से निकल जाने बाद मैं अपने दोस्त के घर पर रहा उन्हें ये नहीं मालूम था की मैं कहां हूं.। हम पहले तो अपने वालिद की एक हीरो की तरह इबादत करते थे, लेकिन जब हमारी वालिदा गुज़र गईं और हम आने रिश्तेदारों के साथ रहने लगे तो मुझे ज़रूर अपने वालिद का सुलूक काफ़ी खटकने लगा था…और मेरा रवैया ‘भाड़ में जाए’ वाला हो गया था।
हमेशा नर्म मिज़ाज वाले जांनिसार बाद के दिनों में बेधड़क शराबनोशी में डूब कर कुछ कड़वे हो गए थे। हमेशा महफिलें, हमेशा दाद पाने की चाहत, हमेशा कुछ आइनों के सामने होने की ख्वाहिश और हमेशा ‘हां जांनिसार’ सुनने की चाह. कुछ वैसे ही जैसे साहिर लुधियानवी।
सन् 1976 में उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। 19 अगस्त 1976 को मुंबई में ही उनका इंतकाल हो गया।
नवीन शर्मा