किसानों को लेकर जिन तीन बिलों पर आज राज्यसभा में बहस के बाद उसे पास कर दिया गया, उसे सरल भाषा में समझिये।
पहला बिल ।
जिस पर सबसे अधिक बात हो रही है कि अब किसानों की उपज सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे।
यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर ऐसा कब था कि किसानों की फसल को व्यापारी नहीं खरीद सकते थे। बिहार में तो अभी भी बमुश्किल 9 से 10 फीसदी फसल ही सरकारी मंडियों में बिकती है। बाकी व्यापारी ही खरीदते हैं।
क्या फसल की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी? यह भ्रम है। क्योंकि बिहार में मक्का जैसी फसल सरकारी मंडियों में नहीं बिकती, इस साल किसानों को अपना मक्का 9 सौ से 11 सौ रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल था।
चलिये, ठीक है। हर कोई किसान की फसल खरीद सकता है, राज्य के बाहर ले जा सकता है। आप ऐसा किसानों के हित में कर रहे हैं। कर लीजिये। मगर एक शर्त जोड़ दीजिये, कोई भी व्यापारी किसानों की फसल सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत में नहीं खरीद सकेगा। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर हां, तभी माना जायेगा कि वह सचमुच किसानों की हित चिंतक है।
दूसरा बिल- कांट्रेक्ट फार्मिंग।
जिस पर उतनी चर्चा नहीं हो रही है। इसमें कोई भी कार्पोरेट किसानों से कांट्रेक्ट करके खेती कर पायेगा। यह वैसा ही होगा जैसा आजादी से पहले यूरोपियन प्लांटर बिहार और बंगाल के इलाके में करते थे।
मतलब यह कि कोई कार्पोरेट आयेगा और मेरी जमीन लीज पर लेकर खेती करने लगेगा। इससे मेरा थोड़ा फायदा हो सकता है। मगर मेरे गाँव के उन गरीब किसानों का सीधा नुकसान होगा जो आज छोटी पूंजी लगाकर मेरे जैसे नॉन रेसिडेन्सियल किसानों की जमीन लीज पर लेते हैं और खेती करते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर भूमिहीन होते हैं और दलित, अति पिछड़ी जाति के होते हैं। वे एक झटके में बेगार हो जायेंगे।
कार्पोरेट के खेती में उतरने से खेती बड़ी पूंजी, बड़ी मशीन के धन्धे में बदल जायेगी। मजदूरों की जरूरत कम हो जायेगी। गाँव में जो भूमिहीन होगा या सीमान्त किसान होगा, वह बदहाल हो जायेगा। उसके पास पलायन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा।
तीसरा बिल- एसेंशियल कमोडिटी बिल।
इसमें सरकार अब यह बदलाव लाने जा रही है कि किसी भी अनाज को आवश्यक उत्पाद नहीं माना जायेगा। जमाखोरी अब गैर कानूनी नहीं रहेगी। मतलब कारोबारी अपने हिसाब से खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों का भंडार कर सकेंगे और दाम अधिक होने पर उसे बेच सकेंगे। हमने देखा है कि हर साल इसी वजह से दाल, आलू और प्याज की कीमतें अनियंत्रित होती हैं। अब यह सामान्य बात हो जायेगी। झेलने के लिए तैयार रहिये।
कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबरियों के हित में हैं और खेती के वर्जित क्षेत्र में उन्होने उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। अब किसानों को इस क्षेत्र से खदेड़ने की तैयारी है। क्योंकि इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है?
पुष्य मित्र