एक ख़बर घूम रही है। ख़बर ये कि लॉकडाउन हुआ और हरिद्वार में गंगा का पानी पीने लायक हो गया। वरना तो गंगा के पानी के बारे में ख़बरें ऐसी भी कि पीना क्या, आचमन के पहले भी लोग बारहा सोचें। लेकिन उत्तराखंड पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने कहा कि हर की पौड़ी पर गंगा का पानी ऐसा हो गया है कि बस क्लोरीन मिलाकर पिया जा सके। साल 2000 में उत्तराखंड बना था। उसके बाद से लेकर अब तक गंगा का पानी क्लास B की श्रेणी में रहा आया था। लेकिन उत्तराखंड पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अधिकारियों की मानें, तो गंगा का पानी अब क्लास A की श्रेणी में है।
लेकिन लॉकडाउन से ऐसा क्या हासिल हुआ कि गंगा का पानी बदलकर इतना साफ़ हो गया? और ये कैसे पता चलता है कि किसी जगह का पानी साफ़ हो गया है? पानी के टेस्ट होते हैं क्या? और किन-किन पैमानों पर पानी की शुद्धता का पता चलता है? सब जानिए यहां।
कौन तय करता है कि पानी कितना साफ़ होगा?
दिल्ली में बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर — यानी ITO मेट्रो के पास — एक बिल्डिंग है। बिल्डिंग का नाम है ब्यूरो ऑफ़ इंडियन स्टैंडर्ड्स यानी (BIS)। BIS का काम है रिसर्च करना। और भिन्न-भिन्न कामों और संसाधनों के लिए मानक निर्धारित करना। मसलन हवा कैसी होनी चाहिए? हेल्थ सेक्टर में काम आने वाले उपकरण किस मानक के होने चाहिए? इंजीनियरिंग के क्षेत्र में काम आने वाले उपकरण किस मानक के होने चाहिए? और इसी क्रम में पानी कैसा होना चाहिए, ये भी बताया है BIS ने।
सबसे पहले पीने के पानी की परिभाषा
BIS के मुताबिक़, पीने का पानी वो पानी है जिसे इंसान इस्तेमाल में ले सकें। या तो सीधे पीने के या तो खाना बनाने के। ये पानी किसी भी स्रोत से आया हुआ हो सकता है। पानी का ट्रीटमेंट — यानी उसको साफ़ करने की प्रक्रिया — हुआ भी हो सकता है, और नहीं भी हुआ हो सकता है। बस इंसान का इस्तेमाल हो जाए।
पहला पैमाना : पानी दा रंग
बात कठिन नहीं करेंगे। स्कूल में पढ़ा होगा। पानी एक रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन तरल है। बस इसी पैमाने पर पहली जांच होती है। गिलास या अंजुरी में पानी लेकर आप सबसे पहले क्या देखते हैं? पानी दिख कैसा रहा है? रंग साफ़ है या नहीं। कोई गंदगी तो नहीं तैर रही है? ये पानी की जांच का पहला स्टेप। सबसे पहले पानी का रंग देखा जाता है। अब पानी बदबूदार हो, या उसमें से कोई महक आए, तो भी पीना सही नहीं है। इसलिए पानी की महक की जांच भी इसी चरण में होती है। अब अगर पानी इन्हीं दो पैमानों पर फ़ेल कर गया तो बात आगे नहीं बढ़ेगी। लेकिन अगर पानी इन दो पैमानों पर पास तो पानी के स्वाद की जांच की जाती है। पानी में कोई स्वाद है या नहीं। ये देखा जाता है। एकदम सही पानी में न कोई स्वाद होना चाहिए, न कोई महक होनी चाहिए, और न ही पानी का कोई रंग होना चाहिए।
अगला स्टेप : पानी का pH
जो लोग विज्ञान पढ़े होंगे, वो जानते होंगे कि pH क्या होता है। और नहीं जानते हैं उनके लिए लल्लनटॉप है। pH एक पैमाना होता है। कोई भी तरल पदार्थ कितना एसिडिक है, या कितना बेसिक है, उसका पैमाना। 1 से 14 तक का स्केल होता है। 7 मतलब एकदम न्यूट्रल। मतलब न एसिडिक न बेसिक। 7 से जितना ऊपर जाएंगे, उतना बेसिक होगा। 7 से जितना नीचे जाएंगे उतना एसिडिक होगा। और पीने के पानी का हिसाब कितना है? BIS के मुताबिक़ पीने के पानी के pH का कांटा 6।5 से 8।5 के बीच का होना चाहिए। आप पूछेंगे कि एकदम 7 क्यों नहीं? वो इसलिए क्योंकि हम लोगों की जो बॉडी है, वो इतने रेंज का पानी झेल सकती है। इसलिए ये थोड़ा रेंज रखा गया है।
पानी में क्या-क्या घुल गया?
एक अंग्रेज़ी का टर्म है। Total Dissolved Solid (TDS)। पानी में कोई भी सॉलिड कितनी मात्रा में घुला हुआ है, ये उसका पैमाना है। लेकिन ये किस तरह के सॉलिड की बात हो रही है? सॉलिड यानी अपशिष्ट। जानवरों-इंसानों का मल या मूत्र। फैक्ट्रियों से निकलने वाला कचरा। जीव-जंतुओं के शरीर के अवशेष। ये सब। इसकी भी मात्रा निर्धारित है। एक लीटर पानी में अधिकतम 300 तक TDS हो सकता है। कुछ अपवादों की बात करें तो अधिकतम 500। अगर TDS उससे ज़्यादा है, तो पानी फ़ेल कर गया टेस्ट। यहां भी वही बात लागू होती है। बॉडी इतना पचा लेती है, इसलिए ये रेंज रखा गया है।
इसके साथ पानी में एक और ज़रूरी चीज़ घुली होती है। ऑक्सिजन। हां। आप सांस लेते हैं तो भी ऑक्सिजन लेते हैं। पानी पीते हैं तो भी। अब पानी में जितना ज़्यादा ऑक्सिजन होगा यानी dissolved oxygen (DO) जितना ज़्यादा होगा, पानी उतना अच्छा होता है।
अब ये तो हो गयी बेसिक लेवल की जांच। इस सबके बाद पानी के सैम्पल का थोड़ा एडवांस टेस्ट होता है। लैब में देखा जाता है कि पानी में मल मूत्र से पैदा होने वाले जीवाणु तो नहीं मौजूद हैं। इन्हें फीकल कोलीफ़ोर्म कहा जाता है। साथ ही ये भी देखा जाता है कि किसी रसायन के कारण ख़ास तरह के केमिकल, रेडियोऐक्टिव पदार्थ, कुछ मेटल या दूसरे तत्त्व पानी में कितनी मात्रा में हैं। इनकी भी नियत मात्रा निर्धारित की गयी है। और जब ये सारे टेस्ट पूरे हो जाते हैं, तो ही पानी के लिए कहा जाता है कि ये पानी पी सकते हैं।
लॉकडाउन में क्या हुआ ऐसा?
दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े हुए वैज्ञानिक डॉ. मयंक पांडेय बताते हैं,
“लॉकडाउन से दो चीज़ें हुई हैं। एक तो बड़े-बड़े कारख़ाने बंद हुए हैं। कारख़ानों से सीवेज — यानी गंदा पानी — भारी मात्रा में निकलता है। उसमें काफ़ी रसायन मिले होते हैं। वो इस समय एकदम बंद है। और दूसरा ये कि पानी का प्राकृतिक फ़्लो चालू है। तो घरों से जो भी सीवेज निकल रहा है, वो ख़ुद ब ख़ुद ही पानी का प्राकृतिक बहाव ठीक कर दे रहा है।”
यानी प्रकृति को ख़ुद को सम्हालने आता है। लेकिन तभी तक, जब तक हम और आप प्रकृति से भयानक छेड़छाड़ न करें। तभी तो गंगा का पानी का इतना साफ़ है कि क्लोरीन की गोली डालो, और पी लो।
इनपुट – दल्लनटॉप