महान शिक्षाविद, समाजसुधारक और आधुनिक शिक्षा के बड़े पैरोकार सर सैयद अहमद खान की आज जन्मतिथि है। सर सैयद अहमद खान का जन्म दिल्ली में हुआ है। उन्हें भारतीय समाज में खासतौर से भारतीय मुस्लिम समुदाय के बीच आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए याद किया जाता है।
19वीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान यह बात अच्छी तरह जान चुके थे कि अंग्रजी दासता में जकड़े भारतीय समाज में सशक्तीकरण केवल ज्ञान, जागरूकता, उच्च चरित्र, अच्छी संस्कृति और सामाजिक पहचान से ही आ सकती है, और वो जिन्दगी भर इसके लिए प्रयासरत रहे।
जानिए उनकी जिन्दगी के कुछ खास किस्से
सर सैयद अहमद खान का जन्म दिल्ली के एक समृद्ध व प्रतिष्ठित परिवार में 17 अक्टूबर, 1817 को हुआ था। इनके पिता का नाम मीर मुत्तकी तथा माता का नाम मीर अजिज-उन-निशा बेगम था। सर सैयद अहमद खां का 27 मार्च, 1898 में निधन हो गया।
सर सैयद अहमद खान पहले मुगल दरबार में नौकरी करते थे। बाद में मुगल दरबार छोड़कर वह अंग्रेजों की नौकरी करने लगे। विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए वे सन 1876 में बनारस के स्माल काजकोर्ट के जज पद से सेवानिवृत हुए। अंग्रेजों ने इनकी सेवा व निष्ठा को देखते हुए इन्हें ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया था।
सर सैयद अहमद खान अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेताओं में से थे। उनका विचार था कि भारत के मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार के प्रति वफ़ादार नहीं रहना चाहिए। इन्होंने सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को पास से देखा था और इस पर एक पुस्तक ‘असबाबे बगावते हिन्द’ (भारतीय विद्रोह के कारण) लिखकर यह बताया की इस विद्रोह के कारण क्या थे।
1857 के गदर के असफल हो जाने के बाद सर सैयद अहमद खान ने अपना पूरा ध्यान मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए लगाया। उन्हें मुस्लिमों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ने की शुरुआत की।
अपने काम के लिए उन्हें सबसे सही माध्यम शिक्षा लगी और इसीलिए उन्होंने मुस्लिम समाज को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। इसी क्रम में सर सैयद ने 1858 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में आधुनिक मदरसे की स्थापना की और 1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल की स्थापना की।
1875 में उन्होंने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की। बाद में यही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कहलाया। सर सैयद अहमद खान इसे कैंब्रिज विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर आगे ले जाना चाहते थे पर फिर उन्हें सिर्फ एक कॉलेज से ही संतुष्ट होना पड़ा।
कहा जाता है कि 1857 की क्रांति के दौरान वो अंग्रेज सरकार के मुलाजिम थे। जब क्रांति हुई तो उन्होंने कई अंग्रेजों को बचाया लेकिन इस क्रांति में उनके अपने कई रिश्तेदार मारे गए। इसके बाद अंग्रेजों के प्रति उनकी धारणा बदलने लगी। हालत ये हो गई कि वो देश छोड़कर मिस्र में बसने के बारे में सोचने लगे।
इसी दौरान उन्हें भारत के मुसलमानों की स्थिति बदलने का खयाल आया। हालांकि जब उन्होने मुस्लिमों को अंग्रेजी के साथ आधुनिक शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कॉलेज की नींव डाली तो खुद धार्मिक मुसलमानों ने उनकी बहुत आलोचना की। मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे। तब उन्हें मौलवी काफिर भी कहते थे।
साभार – बिफोर प्रिंट