ये हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ।कृपया अनुरोध है।
भौंचक्क हूँ! एक कार्यक्रम से लौट रहा था।भूख लगी तो सोचा कि कुछ खाता चलूँ ।अभी अभी कनॉट प्लेस के एक होटल Q,BA में गया था।मैं अंदर घुस ही रहा था कि होटल का मैनेजर लगभग दौड़ते हुए आया और हाथ देकर रोकता हुआ बोला”आप गले में ये ले के नहीं जा सकते।ये गमछा आपको बाहर रखना होगा।”
मेरा सर घूम गया था।जीवन में पहली बार ये अनुभव हुआ।इसके बाद मैनें इस मैनेजर का क्या किया? वहां मौजुद लोगों के बीच सारे स्टाफ़ को बुला क्या किया,ये बताना महत्वपुर्ण नहीं ।वो सब मैं कर चुका हूँ।कुछ नहीं छोड़ आया।जबरन खा के भी आया,तभी गुस्से में यही मुझे जीत लगी।लेकिन ये काफ़ी नहीं इस मानसिकता के खिलाफ़।
महत्वपुर्ण ये है कि आप सुनें,सुनें कृपया “मुझे गले में गमछा रखने के कारण रेस्टोरेंट में नहीं घुसने दिया जा रहा था।” ऐसे में आपको क्या करना चाहिये? बस like और comment?
मैं नहीं जानता कि fb और सोशल मिडिया पे बैठे बुद्धिजीवी इस पर रत्ती भर भी प्रतिक्रिया देंगे कि नहीं? लोक और साहित्य के पक्ष में खड़ा हो रोज बाज़ार को लतिया क्रांति करने वाले जनवादी समूह “लोक वेशभूषा के सरेआम तिरस्कार” पे एक शब्द भी बोलते हुए इस होटल को कोई सबक देंगे कि नहीं?मुझे नहीं पता,न ही कोई अनुरोध है।
बस अनुरोध ये है कि अब से बड़े और जमीन से जुड़े गंभीर बुद्धिजीवी लोग महानगर के वातानुकूलित हॉल में बैठ जमीन,लोक,सरलता,ग्राम,देहात,संस्कृति,जैसे शब्दों का इस्तेमाल बंद कर दें।वातानुकूलित हॉल में बैठ पसर के लंबा लंबा लच्छेदार भाषण दे ये बताना बंद कर दें कि उनकी जड़ें गाँव में हैं।क्यूँकी अभी अभी उसी जड़ की एक वेशभूषा आपके ही महानगर में सार्वजनिक रूप से तिरस्कृत हो के आई है।आपको फर्क पड़ना चाहिये इससे। न पड़े तो कोई बात नहीं ।
मेरा ये पोस्ट लेकिन तब भी इसलिये जरूरी है कि मैं अभी अभी इसी होटल से चंद कदम दूर दिल्ली सरकार द्वारा आयोजित पूर्वांचल उत्सव के मंच से लौटा था।लंबी लंबी बातें हो रहीं लोक के वेशभूषा पे,संस्कृति पे,लोक गीतों पे।मैनें भी कही।लोगों ने तालियाँ बजाई।
एक ओर दिल्ली सरकार राजधानी के ठीक दिल सेंट्रल पार्क में भदेस का उत्सव मना रही,लोक का उमंग है,धोती गमछी में गायक गा रहे,नेता भोजपुरी में बोल रहे,लोक को बढ़ावा मिल रहा।पूर्वी और झूमर गाया जा रहा और ठीक वहीं से कुछ कदम पे एक होटल में हिंदी के एक साधारण वेशभूषा वाले लेखक/आम साधारण आदमी को एक होटल उसके पहनावे के कारण अंदर जाने से रोक दे रहा।
ये कैसे बर्दाश्त हो किसी भी लोक संवेदी सरकार को? होना चाहिये क्या? मेरी विनम्र विनती है दिल्ली सरकार से कि या तो वो ऐसे होटल को तत्काल ये बताए कि इस देश में किसी भी भारतीय पहनावे को रोकने का अधिकार उसे नहीं और न ही सार्वजनिक बेज्जती का अधिकार है। और अगर ये संभव नहीं तो इतना जरुर करे कि तमाम होटल को ये आदेश दे कि वे अपना ड्रेस कोड दरवाजे पे टाँगे और लिखे”लोक वेशभूषा are not अलॉवड”।जनता को ये भी बताया जाय कि साधारण आदमी को साधारण कपड़ों में कहाँ कहाँ जाना प्रतिबंधित है?
मुझे एक साधारण पैंट शर्ट और चप्पल पहन राज चलाने वाले मुख्यमंत्री से उम्मीद है कि वे इसपे तुरंत कोई तो एक्शन लें। एक्शन का अर्थ ये नहीं कि इनको सजा हो,लेकिन इतना जरूर हो कि इन्हें ये तमीज़ मिले कि किसी साधारण वेशभूषा की भी इज्जत करें। ये भारत है,मेरा देश है,मेरी वेशभूषा है,कोई मुझे कैसे किसी आज़ाद लोकतांत्रिक देश में कहीं जाने से प्रतिबंधित कर सकता है?
और तब जब वो एक ऐसा रेस्तराँ हो जहाँ जाने हेतू कोई ड्रेस कोड लागू नहीं । ये असहनीय पीड़ा वाला अनुभव है मेरे लिये।मैं सोच रहा हूँ उस भेदभाव पे जो रोज रोज किसी साधारण के साथ होता है संस्कृति के सर्वश्रेष्ठता के नाम पर ।
प्लीज़,अगर इस मुद्दे पे आप खौले नहीं,तो संस्कृति और भेदभाव इत्यादि पे ज्ञान मत दीजियेगा,वो सब मैं जानता हूँ ।
ये पोस्ट इसलिये लगाया ही है कि कल से किसी को अपनी वेशभूषा को लेकर हिन भावना से ग्रसित न होना पड़े,वे गौरव से अपनी पसंद पहनें । आपसे उम्मीद है कि असली ज्ञान इस बार होटल को मिले। होटल E ब्लॉक में है,Q B A प्रमाण तौर पे एक तस्वीर वहां मौका-ए-वारदात की लगा दे रहा।जय हो।
नीलोत्पल मृणाल : लेखकर डार्क हॉर्स और औघड़ जैसे बेस्ट सेलर किताब के लेखक हैं । ‘हाँ मैं बिहारी हूँ,’ गाने से प्रसिद्ध हूए हैं और सोशल मीडिया पर अपनी बेबाक टिप्पणी के लिये जाने जाते हैं । यह घटना परसो उनके साथ हुई जिसे उन्होने अपने फेसबुक वाल पर साझा किया हैं । यह पोस्ट बिना किसी कांट-छांट के जस के तस चस्पा किया गया है – संपादक