कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण ने 1959 में कहा था, “जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है नेहरू की प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि का आधार कमजोर होता जा रहा है।” 60 साल बाद यह आधार कितना खोखला हो चुका है यह दबी-छिपी बात नहीं। सो, बाल दिवस पर कॉन्ग्रेस के ‘चाचा नेहरू’ को याद करने से बेहतर है बिहार के छपरा के भगेरन तिवारी के बेटे और दरभंगा के अभिराम दास को याद कर लीजिए।
इन दोनों की कहानी में भी नेहरू आएँगे। लेकिन, भगेरन तिवारी के बटे और अभिराम दास आपको जिस छोर पर खड़े मिलेंगे, ठीक उसके विपरीत ध्रुव पर नेहरू दिखेंगे। इनको याद करने का एक कारण यह भी है कि उस ऐतिहासिक फैसले को बस चंद दिन ही हुए हैं, जिसमें देश की शीर्ष अदालत ने कहा है कि जमीन रामलला की ही है। इस फैसले तक पहुॅंचने की लंबी संघर्ष यात्रा में भगेरन तिवारी के बेटे और अभिराम दास का बेहद महत्वपूर्ण योगदान है। योगदान तो नेहरू का भी है। रामलला की मूर्ति हटाने की नाकाम कोशिश का।
हेमंत शर्मा ‘युद्ध में अयोध्या’ में लिखते हैं कि भगेरन तिवारी के बेटे चंद्रशेखर तिवारी 1930 में जब अयोध्या आए तो वे आयुर्वेदाचार्य थे। दिगंबर अखाड़े की छावनी में परमहंस रामकिंकरदास से मिल वे रामचंद्रदास हो गए। काम मिला राम जन्मभूमि की मुक्ति का। 1934 में वे इस आंदोलन से जुड़े, 1975 में दिगंबर अखाड़े के महंत बने और 1989 में राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष। 1990 में अयोध्या में कारसेवकों के जिस जत्थे पर गोली चली उसका नेतृत्व भी परमहंस रामचंद्रदास ही कर रहे थे। राम जन्मभूमि पर मालिकाने और पूजा-पाठ के अधिकार को लेकर 1 जनवरी 1950 को फैजाबाद की अदालत में मुकदमा दायर करने वाले महंत रामचंद्र परमहंस ने 31 जुलाई 2003 को अंतिम सॉंसें ली। आखिरी दम तक वे राम जन्मभूमि के लिए लड़ते रहे।
कहानी के दूसरे नायक दरभंगा के मैथिल ब्राह्मण अभिराम दास गरीब परिवार से आते थे। 6 फुट के बलिष्ठ और हठी साधु अभिरामदास की गिनती अयोध्या के लड़ाकू साधुओं में होती थी। उनके बारे में ख्यात था कि उन्हें हनुमान जी की सिद्धि मिली हुई है। उनकी ख्याति रामजन्मभूमि के ‘उद्धारक बाबा’ के तौर पर थी। 3 दिसंबर 1981 को जब उनकी मौत हुई और हनुमानगढ़ी से उनका विमान (साधु की अर्थी) उठा तो ‘राम जन्मभूमि के उद्धारक अमर रहे’ के नारे लग रहे थे।
जिस मोड़ के कारण इन दोनों की कहानी में नेहरू आते हैं, वह 22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात थी। ‘युद्ध में अयोध्या’ के मुताबिक हाड़ तोड़ने वाली ठंड की उस रात रामचंद्र परमहंस और अभिराम दास साधु-संतों के एक समूह के साथ सरयू स्नान करते हैं। नए वस्त्र धारण करते हैं। उनके साथ गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी) भी थे। भाईजी अष्टधातु की भगवान राम के बचपन की एक मूर्ति लेकर आए थे। मूर्ति का नदी किनारे ही पूजन-अर्चन होता। फिर मूर्ति को एक बॉंस की टोकरी में रख कपड़ों से ढका जाता है। बाबा अभिराम दास उसे सिर पर उठाते हैं। परमहंस रामचंद्र के हाथ सरयू जल से भरा एक तॉंबे का कलश होता है। समूह रामधुन गाता हुआ आगे बढ़ता है… और फिर विवादित ढॉंचे के नीचे रामलला बाल स्वरुप में भाइयों संग प्रकट होते हैं। सुबह के चार बजते-बजते रामजन्मभूमि स्थान पर मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी थी।
फिर इस कहानी में उस समय देश के प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू की एंट्री होती है। हेमंत शर्मा लिखते हैं, “उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम नेताओं और देवबंद के उलेमाओं ने नेहरू को तार भेजकर उनका ध्यान अयोध्या की ओर दिलाया। नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत और राज्य के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को तत्काल मूर्तियों को हटाने के निर्देश दिए। लगातार केंद्र से संदेश लखनऊ आते और वैसे ही तार लखनऊ से फैजाबाद भेजे जाते कि मूर्तियॉं तुरंत हटाई जाएँ। 24 और 25 दिसंबर 1949 को लखनऊ में इस मुद्दे पर दिन भर उच्च स्तरीय बैठक होती रही। तय किया गया कि मूर्तियों को गर्भगृह से बाहर ले जाकर राम चबूतरे पर रखा जाएगा। पर फैजाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट केकेके नायर इस बात पर अड़े रहे कि मूर्ति हटाने की घोषणा मात्र से खून-खराबा हो जाएगा।”
नायर के अड़ जाने के कारण मूर्तियॉं तो नहीं हटीं, पर नेहरू ने प्रयास नहीं छोड़े। देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभाई पटेल से भी पंत पर दबाव डलवाने की कोशिश की। शर्मा ने अपनी किताब में जिन घटनाओं और चिट्ठियों का जिक्र किया है, उनसे जाहिर होता है कि नेहरू मूर्तियॉं हटाने पर अमादा थे। लेकिन, नायर के अड़ने और पंत तथा पटेल के नरम रुख के कारण वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए। शायद उस दिन नेहरू कामयाब हो जाते तो आज रामलला अपनी जन्मभूमि पर विराजमान नहीं होते।
ऐसा नहीं है कि नेहरू को अयोध्या में रामलला का होना ही नागवार था। उन्हें तो उस सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण भी खटक रहा था, जिसे मुस्लिम अक्रांताओं ने कई बार तबाह किया था। वे यह भी नहीं चाहते थे कि 1951 में इस मंदिर के उद्घाटन समारोह में उस समय के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जाएँ। रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘भारत: गॉंधी के बाद’ में लिखा है कि जब राष्ट्रपति ने मंदिर के उद्धाटन समारोह में भाग लेने का फैसला किया तो यह बात नेहरू को पसंद नहीं आई। उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद से कहा कि वे इसमें शामिल न हों, क्योंकि इसके कई मतलब निकाले जाएँगे। नेहरू ने कहा, “व्यक्तिगत रूप से मैं सोचता हूॅं कि सोमनाथ में विशाल मंदिर बनाने पर जोर देना का यह उचित समय नहीं था।” हालॉंकि प्रसाद ने उनकी बात नहीं मानी और उस गौरवशाली क्षण के साक्षी बने।
आखिर में लिबरलों, वामपंथियों और कॉन्ग्रेसियों के लिए ह्वाटसएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान छोड़े जा रहा हूँ। इसका जिक्र पीयूष बबेले ने अपनी किताब ‘नेहरू: मिथक और सत्य’ में किया है। इस किताब के मुताबिक 4 जून 1949 को कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्रियों को नेहरू एक पत्र लिखते हैं। इसमें कहते हैं, “मुझे यह कहना पड़ेगा कि कॉन्ग्रेस के लोग सुस्त हो गए हैं। तेजी से बदलती दुनिया में दिमाग के जड़ हो जाने और मुगालते में रहने से ज्यादा खतरनाक कोई चीज नहीं है।” जिन्हें यह भी गोदी मीडिया का प्रोपगेंडा लग रहा हो उनके लिए गौर करने वाली बात यह है कि इस किताब की भूमिका काली स्क्रीन वाले रवीश कुमार ने लिखी है।
अजीत झा