31 जुलाई, को इस दुनिया से विदा लेने वाले रफी साहब के कुछ ऐसे गानों और गायकी के कुछ ऐसे भी राग रंग है जो कम चर्चित हैं । इन गानों ने रफी साहब को भले ही फेमस न किया हो लेकिन सुर और ताल की समझ रखने वाले इन्ही गानों में उन्हे अपना गुरू मानते हैं ।
ऐसा ही एक गीत है ऐ मेरे लाडलों । 62 का युद्ध और लता जी के ऐ मेरे वतन के लोगों के बारे में तो हम सबने सुना होगा. मगर उसी दौर में रफी साहब ने भी एक गीत को आवाज़ दी थी. नौशाद के कंपोज़ किए गए इस गीत को सुनकर कई लोग भावुक हुए. रफी साहब इस को गाते समय रो पड़े थे, पर वक्त के साथ ये गीत लोगों की स्मृति से धुंधला पड़ गया और ऐ मेरे वतन के लोगों की तरह प्रसिद्ध नहीं हो सका ।
इसी तरह गीतों की शास्त्रीयता को पैमाना बनाया जाए तो बैजू बावरा को एक मील का पत्थर माना जा सकता है. तानसेन और उनके गुरू भाई की कहानी में गायकी का चरम दिखाया गया. नौशाद ने रफी साहब को प्लेबैक के लिए चुना. रफी साहब के गले की रेंज यूं तो बहुत ऊंची है. वो जिस स्केल पर आराम से गाते हैं वहां सुर लगाने में कई गायकों को चीखना पड़ेगा. मगर फिल्म के गीत ऐ दुनिया के रखवाले गाते समय रफी साहब को तार सप्तक के उस बिंदु को छूना पड़ा कि उनके मुंह से खून निकल आया. इसके बाद कई दिन तक रफी साहब गा नहीं पाए थे. हालांकि कुछ साल बाद उन्होंने इस गाने को फिर से रिकॉर्ड किया और पहले से भी ऊंचे स्केल तक गाया, वो भी बिना किसी दिक्कत के.