पांच बार मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ने के बावजूद दिल्ली की सत्ता से बाहर रही भाजपा इस बार दिल्ली में केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे करके चुनाव लड़ने की तैयारी में है। चुनाव प्रचार के शुरुवाती पोस्टरों से भी यही संकेत मिल रहे है जिसमें लिखा गया कि ‘दिल्ली चले मोदी के साथ’। विधानसभा चुनाव की घोषणा किसी भी दिन हो सकती है। सूत्रों के मुताबिक भाजपा नेतृत्व के बड़े वर्ग का मानना है कि इस समय किसी नेता को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने पर उस नेता के विरोधी नेता या तो घर बैठ जाएंगें या ठीक से काम नहीं कर पाएंगे। अन्यथा यह कैसे संभव था कि 2015 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की उम्मीदवार किरण बेदी भाजपा के गढ़ माने जाने वाली कृष्ण नगर सीट से खुद अपना चुनाव भी नहीं जीत पाईं। दिल्ली में भाजपा की समस्या है कि वह 1998 में दिल्ली सरकार से बाहर हुई, तब से वह कभी विधानसभा चुनाव नहीं जीत पाई।
इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रिकार्ड 56.6 फीसद वोट आए है, 2014 के लोकसभा चुनाव में भी वह दिल्ली की सभी सातों सीटें जीती थी और उसे 46.4 फीसद वोट मिले थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे 32 फीसद वोट तो मिले लेकिन सीटें तीन ही मिल पाई। आम आदमी पार्टी (आप) ने 54 फीसद वोट के साथ 67 सीटें जीत ली। माना जाता है कि उस चुनाव में ‘आप’ के ‘पानी माफ और बिजली बिल हाफ’ के नारे का भारी असर हुआ और कांग्रेस के माने जाने वाले वोटरों के साथ-साथ भाजपा का भी निम्न मध्यमवर्ग समर्थक ‘आप’ के साथ चला गया। भाजपा ने वोट में विस्तार के लिए नवंबर 16 में बिहार मूल के लोकप्रिय कलाकार मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष बना कर पूर्वांचल (बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि के मूल निवासियों) के प्रवासियों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया और उसका असर दिखा। अस्सी के दशक से दिल्ली के राजनीतिक समीकरण में बदलाव की शुरुआत तेजी से हुई और उसके तीन दशक बाद को दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 50 में पूर्वांचल के प्रवासी 20 से 60 फीसद तक हो गया हैं। दिल्ली का हर चौथा या पांचवा मतदाता पूर्वांचल का प्रवासी माना जाने लगा है।
दिल्ली में भाजपा लंबे समय तक मूल रूप से पाकिस्तान से आए पाकिस्तान मूल के लोगों और वैश्य बिरादरी की पार्टी मानी जाती थी। लंबे समय तक जनसंघ (अब भाजपा) का नेतृत्व पंजाबी नेता करते थे केदार नाथ साहनी, मदन लाल खुराना और विजय कुमार मल्होत्रा के बाद तो भाजपा में पंजाबी नेताओं का अकाल पड़ गया, जो नए नेता सक्रिय भी हुए उनको पार्टी में वैसा स्थान मिला नहीं। वैश्य नेताओं में ही दावेदारी ज्यादा दिख रही है।
सत्ता के दावेदार तीनों दलों- आम आदमी पार्टी (आप), भाजपा और कांग्रेस में टिकट पाने वालों की लंबी लाईन है। तीनों दलों ने अपने-अपने हिसाब से उम्मीदवार तय करने के लिए आंतरिक सर्वे करवाए हैं। कांग्रेस इन तीनों में सबसे कमजोर मानी जा रही है। वैसे तमाम गुटबाजी के बावजूद प्रदेश कांग्रेस के नेता पार्टी को मुख्य मुकाबले में लाने में लगे हुए है। ‘आप’ ने तो लोकसभा चुनाव के बाद ही बिना घोषणा चुनावी तैयारी शुरू कर रखी है। भाजपा ने भी केन्द्र सरकार से 1731 अनधिकृत कालोनियों में मालिकाना हक दिला कर और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की सभी कराकर चुनाव प्रचार शुरू ही कर दिया है। भाजपा को फैसला लेने में देरी होने से अब मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने पर संदेह होने लगा है और पार्टी के कई बड़े नेता चुनाव की तारीख आने से पहले न घोषित होने पर सीधे प्रधानमंत्री के नाम पर चुनाव लड़ने की सलाह देने लगे हैं।
खूब लग रहे हैं कयास : डॉ हर्षवर्धन के दूसरी बार केन्द्र में मंत्री बनने के बाद विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेन्द्र गुप्ता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल ही मनोज तिवारी के अलावा मुख्यमंत्री के प्रमुख दावेदार माने जाते हैं। वैसे परंपरा तोड़कर पहली बार प्रभारी श्याम जाजू से लेकर केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी आदि के भी नाम चर्चा में हैं। दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा में पहले भी छात्र नेताओं को स्थान मिलता रहा है। लेकिन इस बार भाजपा में पुराने छात्र नेताओं को उम्मीदवार बनाने की तैयारी की जा रही है। विजय गोयल, विजेंद्र गुप्ता, अनिल झा, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय ही नहीं दिल्ली विवि छात्र संघ के अध्यक्ष रहे नरेंद्र टंडन, आशीष सूद आदि भी विधानसभा टिकट पा सकते हैं। विजय गोयल या डॉ हर्षवर्धन तो तभी विधानसभा चुनाव लड़ेंगे जब पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाए।