सबसे से पहले आयोजन समिति को और समिति के तमाम सहयोगी और अकादमी को इस बात के लिये धन्यवाद ज्ञापित करते हैं कि आपने मैथिली के लिये कोई आयोजन किया । अपने आप में मगन रहने वाले इस जगत में अगर कुछ लोग हैं, जो अपनी मातृभाषा के लिये अपने सर के बाल को उड़ा रहे हैं, तो निश्चित ही वह व्यक्ति प्रणम्य है ।
आयोजन में जो सबसे अच्छी बात थी वो ये कि यहाँ के लोगों ने पाग, दुपट्टा और मखान के माला से परहेज किया । ये अच्छी बात है । आयोजन समिति का फण्ड और समय दोनों बच गया । इस तरह के आयोजन में उपरोक्त फॉर्मेलिटी नहीं होना चाहिये । कोई अगर करता है तो ये मात्र दिखावा है और पैसे की बर्बादी करता है ।
इस बार का आयोजन हो गया हमलोगों को उसी बात से संतोष है । आयोजन होने से इतर कुछ नया देखने को नहीं मिला… एक-एक कर अगर कुछ बिंदू पर चर्चा करें तो…
कवि सम्मेलन/गोष्ठी
मैथिली मंच के लिये सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि मैथिली का कोई भी मंच न तो कवि को अपनी रचना को एक्सप्लोर करने का अवसर देता है न ही उनके व्यक्तित्व को । जब वो इन दोनों को एक्सप्लोर नहीं कर पाएगा तो मातृभाषा को क्या खाक उजागर करेगा । मैथिली को उनके सभी मंचों के सेलेक्शन प्रोसेस पर हमेशा से प्रश्नचिन्ह रहा ही है । कवि को यह कह कर आमंत्रित किया जाता है कि, ‘समय बहुत कम है, आइये सुनिये फलाना बाबू को, उनकी रचना के बाद हम सब फलाने बाबू को सुनेंगे।’ और कवि को पहले ही कह दिया जाता है कि बहुत लोग आमंत्रित है, इसलिये कम समय में एक रचना सुना दीजिये । बांकि बाद में फलाना बाबू भी इंतजार कर रहे हैं । फलाना बाबू, आप तैयार रहिये ।
सिर्फ आयोजक ही नहीं, कवि सबको भी ये भान नहीं है कि स्टोरी टेलिंग, पोएट्री और बूक रीडिंग में क्या अंतर है । कथा-वाचन के समय एक हीं सांस में वो सभ कुछ पढ़ देते हैं । कविता ऐसे पढ़ते हैं जैसे क्लास में खड़ा होकर कोई बच्चा किताब पढ़ रहा हो । दर्शक और श्रोता को बांध कर रखने की कला का घोर अभाव है इन कवियों में ।
वक्ता का गलत चुनाव
बहुतों वक्ता अपने बात को रखते समय अपनी बात को किताब जैसे पढ़तें देखे गए हैं । अगर सिर्फ बात ही रखना है, तो लिखे हुए को बोलने वाला बहुत सा सॉफ्टवेयर है बाजार में, उनसे उनका कंटेट लेकर और उनके ही बात को सॉफ्टवेयर से बजाकर सबको सुना दिया जा सकता है । वक्ता और आयोजक दोनों का समय और पैसा बचेगा, लेकिन ये लोग ये भी नहीं करते । किसी भी मुद्दे पर अपनी बात रखना एक बड़ी जिम्मेदारी है, जो लोग आपको सुनने आते हैं, वो आपकी बात समझकर घर लौट सके इसकी विशेष जरूरत है । इसलिये आयोजक को वक्ता का चयन करते समय विशेष जिम्मेदारी रखनी चाहिये ।
विमर्श के मुद्दा का गलत चुनाव
इस बार का विमर्श का कोई भी मुद्दा आकर्षक नहीं लगा । न हीं उसमें ऐसी कोई जिम्मेदारी लगी कि ये विमर्श, भाषा की समृद्धि के लिये किया जा रहा है ।
समसामयिक बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिनपर विमर्श जरूरी है । लेकिन हम लोग गए ही थे गीत गाने । लिटरेचर फेस्टिवल मात्र कवि और लेखक के लिये नहीं होता है । आपके विमर्श में सिनेमा, समाज, नाटक, लोक-संगीत, लोकनृत्य सब कहीं खोया हुआ सा लगा ।
विमार्शकर्ता के अध्ययन में कमी
बहुतों ऐसे मुद्दे पर डिबेट होने के समय ऐसा लगा कि न तो डिबेट संचालक ठीक से प्रश्न पूछ रहे हैं, न ही उत्तर देने वाले/देने वाली जिम्मेदारी से उत्तर दे रहे हैं । सब लोग बस अपना समय पूरा करने में लगे थे । जबकि भाषा का डिबेट सबसे उलझाउ काम है । इसके लिये बहुत से अध्ययन, शोध, रेफरेंस और चालाकी चाहिये । डिबेट में अंत में जो बात निकल कर आई उसका ब्रीफिंग तक नहीं हुआ । या यूँ कहें कि नहीं किया गया ।
मुद्दा और व्यक्ति का चयन प्रक्रिया
हमको इस बात की जानकारी नहीं है कि वो कौन लोग हैं जो इस तरह के बड़े स्तर वाले कार्यक्रम में मुद्दा और वक्ता के चयन को फाइनल टच देते हैं । लेकिन इतना जरूर समझ आ गया कि उन लोगों को अब अपने आप को एक्सप्लोर करने की जरूरत है । सबसे पहले मुद्दा क्या होना चाहिये इसके लिये पब्लिक ओपिनियन होना चाहिये उसके बाद मुद्दा का चयन होना चाहिये । जब मुद्दा फाइनल हो जाए तो एक बार फिर से चुने हुए मुद्दा को पब्लिक किया जाय और उसपर फिर एकबार लोगों से अपील किया जाय कि अलग-अलग टॉपिक पर फिट वक्ता का नाम दिया जाए । मिले हुए ऑपिनियन में से लोगों को फाइनल किया जाय ।
उपरोक्त प्रक्रिया में वो सब मुद्दा अपने आप कवर हो जाएगा जिसके तरफ आयोजक का ध्यान भी नहीं गया हो । वो लोग भी सामनें आएंगे जिनको हम-आप जानते भी नहीं है । उतने ही लोगों में लुका-छिपी खेलने की पुरानी पक्रिया इससे स्वत: खत्म हो जाएगी ।
इन सबसे इतर इस आयोजन में पाग वाला दुकान, दुपट्टा वाला दुकान, हस्तकला वला दुकान और किताब वाले दुकान का एक भी सेल्फी नहीं मिला । अगर ये सब इस बार नहि था तो आप अपने आयोजन को विफल ही समझिये । राजनीति पर्व समारोह और इस तरह की गतिविधि के लिये करोड़ो खर्च करने वाला मैथिल समाज, स्टेडियम तक बुक करने वाला समाज अगर अपने भाषा के फेस्टिवल के लिये एक बड़े जगह का आयोजन नहीं करवा सकता है तो ये दुर्भागयपूर्ण है । इस पर पुन: विचार होना चाहिये ।
अंतमे : हमको लगता है कि मेरी रचना– “गे फुलकुमरि” एक एतिहासिक रचना है । आज तक कोई भी मैथिली कविता इससे पहले इस शब्द पर नहीं लिखा गया था । अगर किसी अकादमी, समिति के पास इस तरह की रचना के लिये कोई स्पेशल पुरस्कार हो तो वो हमको भेज सकते हैं । बांकि मैथिली की जय हो ।
रोहित यादव : लेखक स्वतत्र टिप्पीणकार हैं । फेसबुक पर अपनी बेबाक राय के लिये जाने जाते हैं ।