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जिन्ना को लेकर बहुत भ्रम हैं। चंचल जी जिन्ना को चर्चिल का मोहरा कहते हैं लेकिन चर्चिल के मोहरे अगर जिन्ना थे तो वो तमाम लोग भी चर्चिल के मोहरे ही थे जो अपने अपने कुनबे के साथ भारत का सत्ता हासिल करना चाहते थे। मेरा मानना है कि चर्चिल से ज्यादा इस देश को गांधी भी नहीं समझ पाये।
1858 से ही अंग्रेजों के पास यह बडा सवाल था कि भारत किसके हाथों में सौंपा जाये। कांग्रेस की स्थापना के पीछे भी एक ऐसा समूह तैयार करना था, जो भारत की सत्ता संभालने का दावा कर सके। रुलिंग चीफ सदन के लिए चुनाव नहीं लड सकते थे। ऐसे में भारत के सबसे बडे जमींदार का चुनाव लडकर सदन पहुंचना स्वभाविक ही था। 1883 में चुनाव जीतकर सदन पहुंचे लक्ष्मीश्वर सिंह ने भारतीयों को उम्मीद जगा दी कि इस रास्ते हम एक योग्य शासक खुद को बता सकते हैं और आजादी का रास्ता निकल सकता है। 60 साल बाद इसी रास्तेे आजादी मिली भी।
सायमन कमीशन योग्यता की जांच के लिए भारत आया था। उसमें भारतीय प्रतिनिधि नहीं थे। उसका विरोध हुआ। पर यहां हम यह भूल जाते हैं कि उका विरोध इसलिए नहीं हुआ कि वो हमारी योग्यता जांचने क्यों आया है। दरअसल हमारी शासन करने की योग्यता ही आजादी की पहली शर्त थी। यही कारण था कि 1883 से लगातार सदन के सदस्य रहने का अनुभव रखनेवाला दरभंगा का जमींदार परिवार सत्ता संभालने का मजबूत दावेदार था। शायद इसी लिए लक्ष्मीश्वर सिंह के भतीजे कामेश्वर सिंह ने गांधी की तरह ही खुद को दलीय राजनीति से दूर रखा। वो भारत के पहले भारतीय वायसराय होने के तब तक दावेदार रहे जब तक माउंटबेटन भारत नहीं आये थे। ये तो हुई ब्रिटिश इंडिया के मूल स्वरूप में आजादी की परिकल्पना जो 1942 मे भारत छोडो आदोलन के साथ ही खत्म होती गयी। वर्ना ऑस्ट्रेलिया की तरह ही आज भारत होता।
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अब आइये मसले पर। भारत के सबसे बडे जमींदार लक्ष्मीश्वर सिंह भारतीय राजनीति में रॉयल कमोनियर के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने ढाका से कराची तक के लोगों का सदन में प्रतिनिधित्व किया। पहले विश्वयुद्ध के बाद जब वोट और लामबंदी में सत्ता की कुंजी दिखने लगी, तो भारत के ताकतवर लोग अपने अपने कुनबे के साथ खडे होने लगे। कांग्रेस गरम और नरम के साथ सबसे बडा कुनबा था। हिंदूओं को लेकर सावरकर दावेदारी ठोंक रहे थे तो मुसलमानों को लेकर जिन्ना ने दावेदारी ठोंक दी। इधर कमजोर ही सही, लेकिन दलितों को लेकर अंबेदकर भी कुछ ऐसा ही प्रयोग करने में लगे थे। भगत सिंह और सुभाष का रास्ता इन सबसे अलग था।
कांग्रेस में नेहरू तेजी से खुद को सबसे योग्य साबित करने लगे थे। नेहरू उस मोतीलाल के इकलौते बेटे थे जो महलनुमा घर में रहनेवाले भारत के पहले वकील थे। 1922 में ही एक तरीख पर वो करीब 2500 रुपये फीस लेते थे। जो आज के समय का करोडों रुपया होगा। कई रियासतों और जमींदारों से ज्यादा दौलत नेहरू के पास थी। वकीलों में नेहरू वही थे जो जमींदारों में लक्ष्मीश्वर सिंह । इसी लिए लक्ष्मीश्वर सिंह के रॉयल कमोनियर को नेहरू ने अपना मूलमंत्र बनाया और वामपंथ के रास्ते भारतीय राजनीति में एंग्री यंग मैन बन कर उभरे। जिन्ना न पैसे में कमजोर थे, न योग्यता में। मोतीलाल के बाद जिन्ना ही दूसरे वकील थे जो महलनुमा घर में रहते थे। नेहरू के लिए सावरकर और अंबेदकर के मुकाबले जिन्ना बहुत भारी थे। नेहरू जमींदारों पर हमला कर दरभंगा को किनारे लगा रहे थे, तो दूसरी ओर भारत के दूसरे सबसे बडे वकील को जमींदार की तरह वो किनारे नहीं लगा पा रहे थे। जिन्ना किसी भी मामले में नेहरू से खुद को कमजोर नहीं मानते थे। न वो अंबेदकर की तरह आर्थिक रूप से कमजोर थे और न ही सावरकर की तरह नेहरू से पेशेगत अलग थे। सावरकर का हिंदूवाद जैसे जैसे प्रखर हुआ जिन्ना का मुस्लिमवाद वैसे वैसे तीखा होता गया। नेहरू और सावरकर से एक साथ लडते लडते जिन्ना खुद से ही लडने लगे, जिसका जिक्र बाद में उनके डॉक्टर की डायरी में मिलता है।
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जिन्ना के स्वभाव में बदलाव का दूसरा कारण उनकी बीमारी थी। इतिहास के चंद गहरे राजों में से एक जिन्ना की बीमारी का भी राज हैं। जिन्ना की बेटी तक को उनकी बीमारी का पता नहीं था। जिन्ना को वक्त की जानकारी थी। गांधी उन्हें समझा नहीं पाये, क्यों कि गांधी उन्हें पांच साल रुकने की बात कह रहे थे और जिन्ना के पास महज दो साल बचे थे। जिन्ना जानते थे कि अगर पाकिस्तान नहीं बना, तो वो जीते जी कायदे आजम नहीं बन पायेंगे। बीमारी के बाद जिन्ना किसी से लंबी बात नहीं करते थे। खांसी छुपाने के लिए जिन्ना बहुत कम बोलने लगे थे। जिन्ना में आये इस बदलाव को लोग उनकी एरोगेंसी समझने लगे, जबकि जिन्ना किसी भी सूरत में अपनी बीमारी को छुपाना चाहते थे और इसमें वो सफल रहे।
जहां तक गांधी की हत्या का सवाल है तो ऐसा लगता है मानो गांधी को जिन्ना की बीमारी का पता चल गया था। बीमार जिन्ना के लिए नेहरू भी बहुत कठोर नहीं बनते। पटेल भी गांधी की बात शायद काट नहीं पाते। आलेख का अंत झारखंड के उस प्रकरण से करना चाहूंगी जिसमें झारखंड मुक्ति मोरचा के सुप्रीमो शिबू सोरेन ने कहा था कि झारखंड को राज्य बनाने के लिए बहुत लंबी लडाई लडी है मुझे एक दिन के लिए भी इस राज्य का मुख्य मंत्री बना दीजिए..उस दिन भी मुझे जिन्ना याद आये थे..गांधी याद आये थे..शिबू तो झारखंड के मुख्यमंत्री बन गये लेकिन गांधी जिन्ना को एक दिन के लिए भारत का कायदे आजम न बना सके।
कुमुद सिंह (ये लेखक के अने विचार हैं)