एक मीडिया बातचीत चल रही है। सामने नीरज चोपड़ा बैठे हैं। ओलंपिक में सोना जीतने के बाद वह नई सनसनी बने हुए हैं। सवाल उनसे ही होने हैं। सिलसिला शुरू होता है। एक रिपोर्टर की आवाज आती है। I Want to Ask…। अभी ये बात पूरी भी नहीं हो पाती है कि नीरज चोपड़ा की आवाज गूंजने लगती है। भाई, भाई भाई… हिंदी में पूछ ल्यो… हिंदी में जवाब दे लूंगा…
ये एक बात हिंदी भाषा की आंखों में खुशी भर देती है। उसका सिर ऊंचा कर देती है और जिस दामन को लोग पुराना मानने लगे हैं उसे फिर से उजला बना देती है। मजे की बात देखिए कि इसकी चर्चा ही नहीं है कि नीरज को इंग्लिश समझ में नहीं आती या फिर इसे बोलने में वह असहज होते हैं। बस मंच से उनकी इस गुजारिश को तुरंत मान लिया जाता है और सवालों की भाषा सेकेंड से भी कम समय में बदल जाती है। इंग्लिश वाली गिटर-पिटर को छोड़कर ठहराव और संजीदगी के साथ सवाल हिंदी में हो जाते हैं।
आजादी के बाद से ही हम हिंदुस्तानियों की दिक्कत रही है कि हम दिखावे में बहुत रहे हैं। ये दिखावा हमारे रहन-सहन में तो सबसे पहले आया। एक बारगी यहां तक तो ठीक भी रहा, लेकिन इसके बाद इसका सबसे अधिक असर हमारी भाषा पर पड़ा। लॉर्ड मैकाले की बाबू बनाने वाली शिक्षा पद्धति इसके लिए जितनी जिम्मेदार है, अंग्रेजीदां जैसा दिखने का हमारा लालच भी इसके लिए उतना ही जिम्मेदार है।
कई सालों तक आलम ये रहा कि हम भाषाई दोहरेपन में फंसे रहे। हिंदी भले ही मातृभाषा बनी रही, लेकिन हमारा लालच यही रहा कि हम अंग्रेजों जैसे दिखें। उनके जैसे दिखने को मार्केट में शालीन बताकर बेचा गया। पैसे वाले लोगों ने इसे खरीदा और यहीं से मध्यम वर्ग में एक दबाव आया कि वो भी ऐसा ही करे।