सिखों के पहले गुरु नानक देव जी का जन्म सन् 1469 में कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को हुआ। आज 550वें प्रकाश पर्व पर पढ़िए नानक जी के समाज में मौजूद विभाजन मिटाने के तरीके और कैसे उन्होंने जात-पात, अमीर-गरीब के भेद को मिटाया। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक…
नीचा अंदर नीच जाति नीच हो अति नीच
नानक तिनके संग साथ बढ़िया के ऊंका रीस।।
यानी-नीचों में भी जो नीच जाति के हैं, उनमें भी जो सबसे नीचे हैं, मैं उनके साथ हूं। खुद को बड़ा मानने वालों से मेरा नाता नहीं है।
वंचितों के साथ खड़े रहे: अछूत समझे जाने वालों के यहां रुके और उनके हाथों का भोजन किया
नानक जी जब गुजरांवाला गए तो एक भक्त लालो बढ़ई के यहां ठहरे। बात फैल गई कि उच्च जाति का संत अछूत लालो के घर पर रुका है। गांव के मुखिया मलिक भागो ने नानक जी को भोजन पर बुलाया। पर नानक जी ने मना कर दिया। उन्होंने कहा- लालो की सूखी रोटियों में मुझे शहद का स्वाद आता है।
कहा: परिश्रम से कमाकर, उसमें से भी कुछ बचाकर लोगों की मदद करने, भूखे को खिलाने वाला श्रेष्ठ है।
विभाजन को तोड़ा: ऐसा समूह बनाया जिसमें धर्म-जाति के आधार पर कोई भेद नहीं था
गुरु नानक जी ने समाज को अनेक भागों में बंटा देखा। उन्हें लगा कि धर्म पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया है और इसे धन उगाही का धंधा बना लिया है। इसलिए उन्होंने एक ऐसा समूह बनाने का निश्चय किया, जिसमें जन्म, धर्म और जाति के लिहाज से कोई छोटा-बड़ा न हो।
सामुदायिक उपासना की प्रथा शुरू की। इसमें शामिल लोगों के लिए जात-पात का बंधन नहीं था।
छुआछूत पर प्रहार किया: सभी जातियों को जोड़ एक साथ भोजन बनवाया और खिलाया
करतारपुर में नानक जी संगत में आए लोगों के साथ भोजन करने बैठे थे। भोजन परोस दिया गया था, लेकिन नानक जी ने कहा जिन्होंने भोजन बनाया है और जिन्होंने यहां झाड़ू लगाई वो तो अभी आए नहीं। वो अलग भोजन क्यों करेंगे? ईश्वर ने सबको समान बनाया है। सब साथ भोजन करेंगे।
समझाया: छुआछूत छोड़ सब एक साथ, एक ही पंगत में भोजन करें, इसलिए लंगर प्रथा शुरू की।
गुरु नानक देव जी की 3 सबसे बड़ी शिक्षाएं- नाम जपो, किरत करो और वंड छको
गुरु नानक जी की तीनों बड़ी शिक्षाएं इंसानी जीवन को खुशहाली से जीने का मंत्र देती हैं। ये शिक्षाएं हैं नाम जपना, किरत करना और वंड छकना। आज इन्हीं तीन मंत्रों पर सिख धर्म चलता है। ये सीखें कर्म से जुड़ी हुई हैं। कर्म में श्रेष्ठता लाने की ओर ले जाती हैं। यानी मन को मजबूत, कर्म को ईमानदार और कर्मफल के सही इस्तेमाल की सीख देती हैं। यह एकाग्रता-परोपकार की ओर भी ले जाती हैं।
नाम जपो, क्योंकि इसी से आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति मिलती है, तेज बढ़ता है:
नाम जपो- गुरु नानक जी ने कहा है- ‘सोचै सोचि न होवई, जो सोची लख वार। चुपै चुपि न होवई, जे लाई रहालिवतार।’ यानी ईश्वर का रहस्य सिर्फ सोचने से नहीं जाना जा सकता है, इसलिए नाम जपाे। नाम जपना यानी ईश्वर का नाम बार-बार सुनना और दोहराना। नानक जी ने इसके दो तरीके बताए हैं- संगत में रहकर जप किया जाए। संगत यानी पवित्र संतों की मंडली। या एकांत में जप किया जाए। जप से चित्त एकाग्र हो जाता है और आध्यात्मिक-मानसिक शक्ति मिलती है। मनुष्य का तेज बढ़ जाता है।
ईमानदारी से श्रम करो, आजीविका वही सही:
किरत करणी- यानी ईमानदार श्रम से आजीविका कमाना। श्रम की भावना सिख अवधारणा का केंद्र है। इसे स्थापित करने के लिए नानक जी ने अमीर जमींदार के शानदार भोजन की तुलना में कठिन श्रम के माध्यम से अर्जित मोटे भोजन को प्राथमिकता दी थी।
जो मिले, वो साझा करो और विश्वास करो…इसी सीख पर सिख अपनी आय का दसवां हिस्सा दान करते हैं :
वंड छको- एक बार गुरुनानक जी दो बेटों और भाई लैहणा (गुरु अंगददेव) के साथ थे। सामने एक शव ढंका हुआ था। नानक जी ने पूछा- इसे कौन खाएगा। बेटे मौन थे। भाई लैहणा ने कहा-मैं खाउंगा। उन्हें गुरू पर विश्वास था। कपड़ा हटाने पर पवित्र भोजन मिला। भाई लैहणा ने इसे गुरु को समर्पित कर ग्रहण किया। नानक जी ने कहा भाई लैहणा को पवित्र भोजन मिला, क्योंकि उसमें साझा करने का भाव और विश्वास की ताकत है। सिख इसी आधार पर आय का दसवां हिस्सा साझा करते हैं, जिसे दसवंध कहते हैं। इसी से लंगर चलता है।
गुरु नानक जी के संदेशों पर चल रहे सिख धर्म के चार पवित्र प्रतीक चिन्ह
- नानक जी ने अंधविश्वास में फंसे लोगों को निकालने के लिए ओउ्म शब्द के साथ एक लगाकर एक ओंकार नाम दिया और संदेश दिया कि ईश्वर एक है। उसे न तो बांटा जा सकता है और न ही वह किसी का हिस्सा है। वह सर्वोच्च है।
- गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जन देव जी ने किया। 16 अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब में पहला प्रकाश हुआ। गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1705 में दमदमा साहिब में गुरु तेग बहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया। इसमें कुल 1430 अंग (पृष्ठ) हैंै। इसमें सिख गुरुओं सहित 30 अन्य हिंदू संत और मुस्लिम भक्तों की वाणी भी शामिल है।
- खंडा निशान साहिब पर अंकित “देग-तेग-फ़तह’ के सिद्धांत का प्रतीक है। इसके केंद्र में दोधारी खंडा इस दोधारी अस्त्र की धार अच्छाई को बुराई से प्रतीकात्मक तौर पर अलग करती है। एक चक्र वृत्ताकार अनादि परमात्मा के स्वरूप को दर्शाता है, जिसका न कोई आदि है ना ही कोई अंत है। दो कृपाण (मुड़े हुए एकधारी तलवार) मीरी और पीरी भावों का चित्रण करते हैं। यह आध्यात्म और राजनीति के समन्वय का प्रतीक है।
- निशान साहिब सिख धर्म में बेहद पवित्र माना जाता हैं। यह खालसा पंथ की मौजूदगी का प्रतीक है। श्री गुरु हरगोबिंद साहिब ने पहली बार केसरिया निशान साहिब 1709 में अकाल तख्त पर फहराया था।
ईश्वर हर दिशा में हैं, नानक जी ने एक नजीर से बता दिया- खुदा हर जगह है:
मक्का पहुंचने से पहले नानक देव जी थककर आरामगाह में रुक गए। उन्होंने मक्का की ओर पैर किए थे। यह देखकर हाजियों की सेवा में लगा जियोन नाम का शख्स नाराज हो गया और बोला-आप मक्का मदीना की तरफ पैर करके क्यों लेटे हैं? नानक जी बोले- ‘अगर तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा, तो खुद ही उनके पैर उधर कर दो, जिधर खुदा न हो।’ नानक जी ने जियोन को समझाया- हर दिशा में खुदा है। सच्चा साधक वही है जो अच्छे काम करता हुआ खुदा को हमेशा याद रखता है।
ईश्वर हर व्यक्ति में है, बुरे लोगों को एक जगह रहने, अच्छों को फैलने का आशीर्वाद
नानक अपने शिष्य मरदाना के साथ लाहौर यात्रा पर थे। जब वे कंगनवाल पहुंचे तो वहां के लोगों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया। नानक जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया- बसते रहो मतलब इसी गांव में आबाद रहो। दूसरे गांव के लोगों ने उनका काफी सत्कार किया। गांववालों को नानक जी ने आशीर्वाद दिया- उजड़ जाओ। मरदाना ने पूछा ऐसा क्यों? नानक जी बोले-ईश्वर हर व्यक्ति में हैं- बुरे लोग एक जगह रहें, ताकि बुराई न फैले और अच्छे हैं वो सभी दिशाओं में जाकर बसें ताकि अच्छाई का प्रसार हो।
ईश्वर हर कण में है, पश्चिम में अर्घ्य देकर कहा, पानी प्यासे खेतों तक जाएगा
नानक जी हरिद्वार गए, वहां लोगों को गंगा किनारे पूर्व में अर्घ्य देते देखा। नानक इसके उलट पश्चिम में जल देने लगे। लोगों ने पूछा- आप क्या कर रहे हैं? नानक जी ने पूछा, आप क्या कर रहे हैंं? जवाब मिला, हम पूर्वजों को जल दे रहे हैं। नानक जी बोले-‘मैं पंजाब में खेतों को पानी दे रहा हूं।’ लोग बोले- इतनी दूर पानी खेतों तक कैसे जाएगा? इस पर नानक जी बोले- जब पानी पूर्वजों तक जा सकता है, तो यह खेतों तक क्यों नहीं जाएगा? मानो तो ईश्वर यहां मौजूद हर कण और हर व्यक्ति में है।’
ईश्वर का ही सबकुछ है, ग्राहक को अनाज देते वक्त जाना अपना कुछ भी नहीं
गुरु नानक देवजी को आजीविका के लिए दूसरों के यहां काम भी करना पड़ा। बहनोई जैराम जी के जरिए वे सुल्तानपुर लोधी के नवाब के शाही भंडार की देखरेख करने लगे। उनका काम हिसाब रखना भी था। यहां का एक प्रसंग प्रचलित है। एक बार वे तराजू से अनाज तौलकर ग्राहक को दे रहे थे तो गिनते-गिनते जब 11, 12, 13 पर पहुंचे तो उन्हें कुछ अनुभूति हुई। वह तौलते जाते थे और 13 के बाद ‘तेरा फिर तेरा और सब तेरा ही तेरा’ कहते गए। इस घटना के बाद वह मानने लगे थे कि ‘जो कुछ है वह परमबह्म्र का है, मेरा क्या है?’
सिख और हिंदू ऐसे जुड़े हैं जैसे नाखून और मांस (सिख धर्म के इतिहासकार खुशवंत सिंह की किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ द सिख्स’ से)
सिख धर्म के इतिहासकार और लेखक खुशवंत सिंह ने दो खंडों में छपी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ द सिख्स’ में लिखा है कि सिख धर्म की जड़ें सनातन ग्रंथों, जैसे गीता और वेदांत में देखी जा सकती है। गीता के दूसरे अध्याय का 21वां श्लोक है-
‘न जायते मृयते वा कदाचि त्रायं भूत्वा भविता वा न भूयः
अजो नित्यः शाश्वतोयम पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’
यानी आत्मा न जन्म लेती है न मरती है न ही वह भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्र में फंसती है। यह शाश्वत है इसलिए शरीर की मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए। ऐसी ही भावना आदिग्रंथ में देखने मिलती है। नानक जी ने मनुष्यों में जाति, धर्म, प्रांत से परे होकर एकसाथ भोजन करने की परंपरा को आगे बढ़ाया और इसी तरह से गुरु के लंगर की परंपरा शुरू हुई। इसीलिए बिना भय के ‘िकरत करो, वंड छको और नाम जपो’ की शिक्षा दी।
खुशवंत सिंह कहते हैं कि सिखों का एक वर्ग बड़ी मेहनत करता है सिख धर्म को हिंदू धर्म से अलग बताने के लिए। 1604 ईस्वी में संग्रहित किए गए आदिग्रंथ के हवाले से खुशवंत सिंह बताते हैं कि 15028 बार ईश्वर का नाम लिया गया है, जिसमें 8000 से अधिक बार उन्हें हरि के नाम से पुकारा गया। 2533 बार राम के नाम से पुकारा गया है और अनेक बार प्रभु, गोपाल-गोविंद, परब्रह्म जैसे उपनामों से इंगित किया गया है।
1606 में गुरु अर्जन की शहादत के बाद सिख धर्म के दृष्टिकोण में बदलाव आया। हिंदू-सिख आपस में ऐसे जुड़े माने गए, जैसे नाखून और मांस जुड़े होते हैं। एक साथ रोटी खाने के साथ-साथ एक-दूसरे के परिवारों में बेटी ब्याहने को भी उत्तम माना गया। यही परंपरा आज भी दिखती है।