मुंडा आदिवासियों का गांव ‘सरजोमडीह’ झारखंड के लालगलियारे का एक चर्चित गांव है। इस गांव का नाम सुनते ही राजधानीवासियों की नींद उड़ जाती है। माओवादियों के भय से इस गांव में कोई जाना नहीं चाहता है। इस गांव में एक प्राथमिक उत्क्रमित विद्यालय भी है, जहां कक्षा पहली कक्षा से सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती है। विद्यालय में लगभग 250 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं और इस काम में तीन शिक्षकों को लगाया गया है। इसमें सबसे मजेदार बात यह है कि कोई भी शिक्षक मुंडारी भाषा नहीं जानता है। कक्षा पांच में पढ़ने वाला बच्चा रमेश मुंडा बताता है कि हिंदी भाषा में पढ़ाई होने की वजह से बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने में काफी कठिनाई होती है। इसी तरह कक्षा सात में पढ़ने वाली मीनाक्षी मुंडा ठीक से हिंदी में बात भी नहीं कर पाती है। वहीं कक्षा एक से पांच तक के बच्चे तो न के बराबर ही हिंदी जानते हैं। लेकिन वे लगातार कक्षा में पास हो रहे हैं। इनके भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। हां, उन्हे अपनी मातृभाषा ‘मुंडारी’ खूब अच्छी तरह से आती है। वे दिनचर्या का सारा काम मुंडारी भाषा में ही करते हैं। रमेश कहता है कि बच्चों को मुंडारी भाषा में ही पढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन उसकी कौन सुनता है?
झारखंड एक आदिवासी राज्य है, जहां कम से कम आदिवासी भाषाओं को तो स्वीकार किया ही जाना चाहिए था लेकिन संताली भाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं की बात ही नहीं होती है। मुंडारी बिरसा मुंडा की भी भाषा है, लेकिन इस भाषा को प्रथम राज्यभाषा का दर्जा नहीं मिलना एक शर्मनाक बात है। आदिवासियों को अपनी भाषा में शिक्षा उपलब्ध नहीं कराने की वजह से काफी संख्या में बच्चे विद्यालय छोड़ देते हैं। राज्य सरकार के आंकड़े के अनुसार वर्तमान में झारखंड के विद्यालयों में कक्षा एक से आठ तक 40,31,582 बच्चे नामांकित हैं, जिनमें से 32,25,145 बच्चे ही नियमित विद्यालय जाते हैं और 8,06,437 बच्चे विद्यालयों से बाहर हैं। इसके अलावे एक लाख बच्चों का विद्यालयों में कभी नामंकन ही नहीं हुआ। सवाल यह है कि जब न उनकी भाषा में पढ़ाई होगी और न ही यह शिक्षा उनका पेट भर सकेगा, तो वे विद्यालयों में उपस्थिति दर्ज कराकर अपना समय बर्बाद क्यों करें? उन्हें अपना जीवन संवारने के लिए तो उनके गांव के बुजुर्ग ही अपनी भाषा में व्यावहारिक शिक्षा दे देते हैं।
अब सवाल यह है कि हम आदिवासी भाषाओं की वकालत क्यों कर रहे हैं? क्या आदिवासियों का हिंदी और अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण करना उचित नहीं है? यह सभी जानते हैं कि भाषा एक सभ्यता की जाननी होती है। भाषा खत्म होने का मतलब एक सभ्यता का अंत होना निश्चित है। क्योंकि आदिवासी एक ऐसी सभ्यता के प्रतीक हैं, जहां सामूहिकता, समानता, स्वायत्तता, समावेशी विकास और न्याय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस समुदाय की अर्थव्यवस्था ‘जरूरत’ पर आधारित है, ‘लालच’ पर नहीं। फलस्वरूप इस अर्थव्यवस्था से शांति उत्पन्न होती है, युद्ध नहीं। यह समुदाय प्रकृति के साथ सहजीवन का संबंध रखती है, प्रकृति के दोहन पर विश्वास नहीं करती है। इस समुदाय में विकास का अर्थ सभी जीवित प्राणी, पेड़-पौधे और प्रकृति के एक साथ फलना-फूलना से है। आदिवासी समुदाय में शिक्षा का सरोकार हकीकत जीवन से होता है, किसी सपना पर आधारित नहीं। उदाहरण के लिए बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, घर में दादा-दादी, माता-पिता और अन्य सदस्य उन्हें रोजमर्रा के काम में आने वाली चीजों के बारे में बताते हैं और उन्हें व्यावहारिक शिक्षा प्रयोग के साथ ‘अखड़ा’ में दिया जाता है।
आदिवासी भाषाओं से संबंधित लोक गीत, नाटक और कहानियों में जीवन की हकीकत ही भरी-पूरी है। आदिवासी समाज के लेखक और कवि जो भी कहानी, नाटक, गीत, भजन या कविता लिखते हैं, वह जीवन की हकीकत, रोजमर्रा का संघर्ष और दिन-प्रतिदिन जीये हुए पल से सराबोर होता है। ये लेखक कल्पना की दुनिया में घुसकर कुछ नहीं लिखते हैं। यहां कहीं भी बॉलीवुड या हॉलीवुड फिल्मों की तरह सपनों के संसार से कोई सरोकार नहीं होता। आदिवासी भाषाओं में बनी फीचर फिल्मों में भी आदिवासी संघर्ष, उनके जीवन की हकीकत और प्रेम कहानियां हूबहू जीवन की हकीकत से सराबोर रहती हैं। एक आदिवासी प्रेमी अपनी प्रेमिका से चांद-तारे तोड़ कर लाने का वादा नहीं करता है बल्कि बाजार से गोलगोपो, चूड़ी और साड़ी लाने का वादा करता है। लेकिन आदिवासी भाषाओं को मान्यता नहीं मिलने की वजह से आदिवासी बच्चे दूसरी भाषाओं द्वारा अपने समाज के बारे में लिखी हुई गलत बातें ही पढ़ते हैं, जिससे एक तो वे कुंठित हो जाते हैं और दूसरा अपने समाज की हकीकत में जीने की बजाय सपनों में जीना शुरू कर देते हैं और अंततः उन्हें असफलता ही हाथ लगती है। दूसरी बात यह है कि आज की शिक्षा व्यवस्था, जो अंग्रजी और हिंदी पर आधारित है, जो बच्चों को ज्यादा से ज्यादा पैसे कमान और पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए जमाकर रखने की शिक्षा देती है जबकि आदिवासी शिक्षा व्यवस्था इंसान बनाते हुए अपनी जरूरत के अनुरूप इकट्ठा कर बाकी को समाज के दूसरे लोगों के लिए भी बचाना सिखाता है।
दूसरी भाषाओं में बड़े-बड़े लेखक, कवि और पत्रकार पैदा होते रहते हैं लेकिन आदिवासी समुदाय में यह न के बराबर है। इसकी वजह भी यही है कि आदिवासी भाषाओं में लिखी कहानी, कविता, लेख इत्यादि को छापनेवाले हैं ही नहीं क्योंकि ये बाजार के भाव से बिकते ही नहीं हैं। इसलिए लेखक, कवि या पत्रकार बनने की ख्वाहिश रखने वाले आदिवासियों को या तो हिंदी या अंग्रेजी की शरण में जाना पड़ता है, जो आदिवासियों के लिए काफी पीड़ादायक होता है। हिंदी और अंग्रेजी में लिखने के लिए इन्हें स्थानीयता को मार देना होता है क्योंकि दूसरे लोग इससे समझ ही नहीं सकते। यह झारखंड ही नहीं अपितु पूरे देश की आदिवासी भाषाओं का कमाबेश यही हाल है।
शायद यह सवाल पूछना ही बेवकूफी है कि गैर-आदिवासी लोग आदिवासियों की भाषा से नफरत क्यों करते हैं। जब यहां आदिवासियों से ही नफरत है, उन्हें जंगली, असभ्य, असुर, अनपढ़, विकासहीन और न जाने क्या-क्या नकारात्मक उपाधियों से नवाजा जाता है, तो उनकी भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से कोई प्यार करेगा क्या? अब आदिवासियों के बीच उत्पन्न मध्य वर्ग को भी उनकी भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से बेदखल किया जा रहा है। क्या यह कल्पना से परे नहीं है कि झारखंड की राजधानी रांची में रहने वाले केरल के लोग अपने बच्चों को मलयालम सीखाते हैं, तमिलनाडु के लोग तामिल, अंध्रप्रदेश के लोग तेलुगु, बंगाल के लोग बांगला और ओड़िसा के लोग ओड़िया। इसी तरह झारखंड में रहने वाले बिहारी लोग तो भोजपुरी, मगही, मैथिली और न जाने क्या-क्या भाषा अपने बच्चों को सिखा रहे हैं, लेकिन आदिवासियों का शिक्षित मध्यवर्ग अपने बच्चों को हिंदी और अंग्रेजी तो सिखा रहा है लेकिन अपनी मातृभाषा – खड़िया, संताली, मुंडारी, कुड़ुख और हो नहीं सिखा पा रहा है। क्या उन्हें आदिवासी भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से प्यार नहीं है?
एक उदाहरण यह भी है कि विगत वर्ष झारखंड लोक सेवा आयोग के परीक्षा में परीक्षार्थियों को पूछा गया था कि आपकी मातृभाषा क्या है? आदिवासी परीक्षार्थियों ने उसके जवाब में ‘हिंदी’ लिखा। यह उनकी गलती नहीं थी। उनको पढ़ाने वाले सभी शिक्षक हिंदी पट्टी के ही होते हैं और वे बच्चों को मातृभाषा की जगह पर हिंदी ही लिखवाते हैं। हमें किसी शिक्षक ने यह कभी नहीं बताया कि मातृभाषा का मतलब मां की भाषा से संबंध है यानी जन्म लेने के बाद बच्चा सबसे पहले जो भाषा सीखता है, वही उसकी मातृभाषा होती है। यह सारा चीज आदिवासियों के साथ नस्ल-भेदभाव की वजह से है।
हकीकत यह है कि खुद को मुख्यधारा के शिक्षित, जागरूक और सभ्य कहने वाले समाज ने आदिवासियों को बोल कर और लिख कर इतना ज्यादा कुंठित बना दिया है कि उन्हें खुद को आदिवासी कहने से ग्लानि महसूस होती है इसलिए वे ‘आदिवासी के घेरे’ से बाहर निकालने के वास्ते अपनी ही भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से बेदखल हो रहे हैं। दूसरा उदाहरण यह भी है कि उर्दूभाषी, बांगलाभाषी, मैथिलीभाषी और कई अन्य भाषा समूह के लोग झारखंड में अपनी भाषा को राज्यभाषा बनाने की मांग को लेकर भारी संख्या में राजधानी की सड़कों पर उतर जाते हैं लेकिन, जब आदिवासी भाषाओं की बात होती है, तो कुछ गिने-चुने लोग ही आदिवासी भाषाओं के समर्थन में नारा लगाते दिखाई पड़ते हैं।
आदिवासी शिक्षाविद डॉ निर्मल मिंज कहते हैं कि ‘सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस देश ने आदिवासियों को स्वीकार ही नहीं किया’। आदिवासियों की भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन की बदहाली का सबसे प्रमुख कारण यही है। अगर इन समस्याओं का समाधान निकालना है, तो सबसे पहले आदिवासियों को भी सम्मानपूर्वक इंसान का दर्जा देना होगा, तब उनकी भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन तथाकथित सभ्य, शिक्षित और मुख्यधारा के लोगों को स्वीकार्य होगा। वरना ये हाशिये पर ही पड़े रहेंगे।
साभार – मोहल्ला लाइव