वैसे तो हिंदी सिनेमा में एक से बढ कर एक हैंडसम और स्मार्ट हीरो हुए हैं लेकिन उनमें सबसे ज्यादा जलवा देव आनंद का दिखता है। उनको लेकर महिलाओ में दिवानगी की हालात यहां तक आ रही कि कहा जाता है कि एक बार उन्हें काले कोट में देख कर एक युवती ने छत से कूद कर आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद उनपर सार्वजनिक स्थान पर काला कोट पहन कर निकलने पर अघोषित रोक सी लग गई थी।
26 सितंबर को जन्मे देव आनंद का असली नाम धर्मदेव पिशोरीमल आनंद था। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातक 1942 में लाहौर से किया था। देव आनंद आगे भी पढऩा चाहते थे, लेकिन उनके पिता ने कह दिया कि उनके पास उन्हें पढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं। अगर वह आगे पढऩा चाहते हैं तो नौकरी कर लें। 1943 में जब वे मुंबई पहुंचे तब उनके पास मात्र 30 रुपए थे।
रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं था। देव आनंद ने मुंबई पहुंचकर रेलवे स्टेशन के समीप ही एक सस्ते से होटल में कमरा किराए पर लिया। उस कमरे में उनके साथ तीन अन्य लोग भी रहते थे जो उनकी तरह ही फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। काफी दिन यूं ही गुजर गए। उनके पास पैसा खत्म हो गए।
इसके बाद काफी मशक्कत के बाद उन्हें मिलिट्री सेंसर ऑफिस में क्लर्क की नौकरी मिली। यहां उन्हें सैनिकों की चिट्ठियों को उनके परिवार के लोगों को पढ़कर सुनाना होता था। मिलिट्री सेंसर ऑफिस में देव आनंद को 165 रुपए मासिक वेतन मिलना था।
लगभग एक साल तक मिलिट्री सेंसर में नौकरी करने के बाद वह अपने बड़े भाई चेतन आनंद के पास चले गए जो उस समय भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े हुए थे। उन्होंने देव आनंद को भी अपने साथ इप्टा में शामिल कर लिया। इस बीच देव आनंद ने नाटकों में छोटे-मोटे रोल किए।
फिल्मों में पहला ब्रेक
देव आनंद को पहला ब्रेक 1946 में प्रभात स्टूडियो की फिल्म हम एक हैं से मिला। हालांकि फिल्म फ्लॉप होने से दर्शकों में पहचान नहीं बना सके। इस फिल्म के निर्माण के दौरान ही प्रभात स्टूडियो में उनकी मुलाकात गुरुदत्त से हुई।। इइन दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों ने एक दूसरे को वादा किया कि गुरुदत्त फिल्म निर्देशित करेंगे तो देवानंद को हीरो लेंगे और जब देवानंद फिल्म प्रोड्यूस करेंगे तो गुरुदत्त को डायरेक्टर के रूप में लेंगे। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म जिद्दी देव आनंद के फिल्मी करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई।
गाइड क्लासिक फिल्म
गाइड देव आनंद की सबसे बेहतरीन फिल्म है। इसे उनके ही भाई विजय आनंद ने डायरेक्ट किया था। यह फिल्म साहित्यकार आरके नारायण की कहानी पर आधारित है । इसमें वहीदा रहमान और देव आनंद की जोड़ी ने कमाल का अभिनय किया है। इसके सदाबहार गीत पिया तो ले नाना लागे रे, कांटों से खींच के ये आंचल और दिन ढल जाए तेरी याद सताए।
नवकेतन के बैनर तले शुरू किया फिल्म निर्माण
देव आनंद ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा और नवकेतन बैनर की स्थापना की। नवकेतन के बैनर तले उन्होंने वर्ष 1950 में पहली फिल्म अफसर का निर्माण किया । इसके निर्दशन की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद को सौंपी। इस फिल्म के लिए सुरैया को चुना, जबकि अभिनेता के रूप में देव आनंद खुद ही थे। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से असफल रही।
देव आनंद ने अपनी अगली फिल्म बाजी के निर्देशन की जिम्मेदारी गुरुदत्त को सौंप दी। बाजी फिल्म की सफलता के बाद देव आनंद फिल्म इंडस्ट्री में एक अच्छे अभिनेता के रूप में शुमार होने लगे। इस बीच देव आनंद ने मुनीम जी, दुश्मन, कालाबाजार, सी.आई.डी, पेइंग गेस्ट, गैम्बलर, तेरे घर के सामने, काला पानी जैसी कई सफल फिल्में दी।
सुरैया के साथ अधूरी प्रेम कहानी
फिल्म अफसर के निर्माण के दौरान देव आनंद का झुकाव फिल्म अभिनेत्री सुरैया की ओर हो गया था। एक गाने की शूटिंग के दौरान देव आनंद और सुरैया की नाव पानी में पलट गई जिसमें उन्होंने सुरैया को डूबने से बचाया। इसके बाद सुरैया देव आनंद से बेइंतहा मोहब्बत करने लगीं। अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में देव आनंद ने अपनी प्रेम कहानी बयां की है। देवानंद ने लिखा कि ‘काम के दौरान सुरैया से मेरी दोस्ती गहरी होती जा रही थी।
धीरे-धीरे ये दोस्ती प्यार में तब्दील हो गई।’ एक दिन भी ऐसा नहीं बीतता था जब हम एक दूसरे से बात ना करें। अगर आमने-सामने बात नहीं हो पा रही हो तब हम फोन पर घंटों बात करते रहते थे। जल्द ही मुझे समझ आ गया कि मुझे सुरैया से प्यार हो गया है लेकिन उनकी नानी इस प्रेम कहानी में सबसे बड़ी अड़चन थीं। सुरैया के घर में नानी की इजाजत के बगैर कुछ भी नहीं होता था। हमारी प्रेम कहानी की वो विलेन थीं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि सुरैया मुस्लिम थीं जबकि मैं हिंदू।
देव आनंद आगे लिखते हैं कि ‘सुरैया को देखे बगैर मुझे चैन नहीं मिलता था। एक-एक पल काटना मेरे लिए मुश्किल होता था। सुरैया के परिवारवाले हमारे प्यार पर जितनी बंदिशें बढ़ा रहे थे हमारा प्यार बढ़ता ही जा रहा था। उनके घरवालों ने हमारे मिलने जुलने पर रोक लगा दी थी।
‘सुरैया बड़ी स्टार थीं हर वक्त वो लोगों से घिरी होती थीं। उनसे मिलने के लिए मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। एक दिन एक पानी की टंकी के पास हम मिले। उस वक्त सुरैया ने मुझसे गले लगकर कहा- आई लव यू। बस फिर क्या था मैंने सोच लिया कि सुरैया को प्रपोज कर बात आगे बढ़ाता हूं।’
देव आनंददेव आनंद बताते हैं कि ‘सुरैया के लिए मैंने सगाई की अंगूठी खरीदी। मैं अंगूठी लेकर सुरैया के पास पहुंचा लेकिन उन्हें पता नहीं क्या हुआ उन्होंने मेरी दी हुई अंगूठी समुद्र में फेंक दी। मैंने कभी नहीं पूछा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया। मैं वहां से चला आया। जैसा पहले भी होता आया है मजहब की दीवार के चलते ये प्यार अंजाम तक नहीं पहुंच पाया।’
इसके बाद देव आनंद और सुरैया ने साथ में कोई फिल्म नहीं की और ना ही फिर कभी मिले। सुरैया ने कभी शादी भी नहीं की। कहा जाता है सुरैया देव आनंद से प्यार की बात भूल नहीं पाई थीं और कुंवारी रहकर उन्होंने पूरी जिंदगी बिता दी। वर्ष 1970 में फिल्म प्रेम पुजारी के साथ देव आनंद ने निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। हालांकि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। इसके बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
हरे रामा हरे कृष्णा शानदार फिल्म
इसके बाद वर्ष 1971 में फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा का भी निर्देशन किया। यह उनकी लाजवाब फिल्म थी। इसमें उन्होंने तत्कालीन हिप्पी कल्चर की ऩशाखोरी और शहरीकरण के कारण माता- पिता द्वारा बच्चों की अनदेखी करने से उत्पन्न खतरे को बखूबी दिखाया है। इसमें जीनत अमान को ब्रेक मिला था। वे इसमें मासूम और खूबसूरत लगीं हैं।
इस फिल्म के गाने भी यादगार थे जैसे फूलों का तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है, दम मारो दम और रांची रे रांची रे। इसकी कामयाबी के बाद उन्होंने अपनी कई फिल्मों का निर्देशन भी किया। इन फिल्मों में हीरा पन्ना, देश परदेस, लूटमार, स्वामी दादा, सच्चे का बोलबाला, अव्वल नंबर जैसी फिल्में शामिल हैं।
देव आनंद की खासियत
देव आनंद की फिल्मों की खास बात ये थी की वे अपनी लगभग सभी फिल्मों में कोई सामयिक समस्या को फोकस करते थे। दूसरी उनकी खूबी थी कि वे ऩए लोगों को मौका देते थे। उन्होने जीनत अमान व जैसी श्राफ जैसे कई नौजवानों को ब्रेक दिया। और इन सब से बढ़कर वे गजब के एनर्जेटिक थे।
देव आनंद ने कल्पना कार्तिक के साथ शादी की थी, लेकिन उनकी शादी अधिक समय तक सफल नहीं हो सकी। दोनों साथ रहे, लेकिन बाद में कल्पना ने एकाकी जीवन को गले लगा लिया। दूसरे एक्टर्स की तरह देव आनंद ने भी अपने बेटे सुनील आनंद को फिल्मों में स्थापित करने के लिए बहुत प्रयास किए, लेकिन सफल नहीं हो सके।
वर्ष 2001 में देव आनंद को भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ। वर्ष 2002 में उनके द्वारा हिन्दी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 3 दिसंबर 2011 को इस सदाबहार अभिनेता ने लदंन में अपनी अंतिम सांस ली।
नवीन शर्मा वाया बिफोर प्रिंट