विजयादशमी के दिन 11 अक्टूबर 1902 को सिताब दियारा में जन्मे जयप्रकाश नारायण समाज में आमूल परिवर्तन चाहते थे। वे समाज में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, नैतिक हर प्रकार का परिवर्तन चाहते थे ताकि देश में एक नया समाज बने। यह आज के समाज से बिल्कुल भिन्न हो। देश में जातिवाद, परिवारवाद, निरंकुश शासन-सत्ता, जातपात, वंशवाद, सांप्रदायिकता, तानाशाही आदि के खिलाफ जेपी ने अपनी आवाज बुलंद की और संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। जेपी के सिद्धांत और वर्तमान परिवेश में संपूर्ण क्रांति की प्रासंगिकता पर बिहार विधान परिषद के सदस्य व पटना विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक प्रो. डा. रामवचन राय कहते हैं कि जेपी की संपूर्ण क्रांति एक दार्शनिक सोच थी।
जेपी के विचारों का लंबे वक्त में दिखेगा असर
प्रो. राय ने बताया कि सियासत में समय के साथ बदलाव आएगा। इसे सही ढंग से समझने की जरूरत है। जेपी जैसे महापुरुषों की प्रासंगकिता दार्शनिक होती है। संपूर्ण क्रांति एक दर्शन है। इसकी व्याख्या समयानुकूल होती रहेगी और जेपी की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी। दर्शन एक विचारधारा होती है जिसे जमीन पर उतारने में वक्त लगता है। जब विचारधारा घनीभूत होकर जन कल्याण का माध्यम बनती है तो वो दर्शन का रूप ले लेती है। वर्तमान राजनीति में भी जेपी के कई अनुयायी हैं जो सत्ता पर काबिज हैं। वे लोग भी अपने-अपने स्तर से समाज में बदलाव को लेकर कार्य करने में लगे हैं। समय के साथ देश व समाज भी बदलेगा और समाज में एक आमूल परिवर्तन भी होगा जो जेपी की प्रासंगिकता को सार्थक करेगा।
गांधी के विचारों से प्रभावित हुए थे जेपी
अमेरिका में अध्ययन के दौरान जेपी पर कार्ल मार्क्स और उनके समाजवाद का बहुत प्रभाव पड़ा। वे उन दिनों रूसी क्रांति से भी बहुत प्रभावित हुए। वर्ष 1929 में भारत आने पर जेपी पूरी तरह से मार्क्सवादी हो चुके थे। वे सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजी सत्ता को भारत से बेदखल करना चाहते थे, हालांकि बापू और नेहरू से मिलने एवं आजादी की लड़ाई में भाग लेने के बाद उनकी विचारधारा में भी बदलाव आया। वे कांग्रेस में शामिल होकर गांधीजी के साथ रहे।
गांधी के खिलाफ कभी नहीं गए जेपी
1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल गए और इसके बाद कांग्रेस में ही सोशलिस्ट पार्टी बनाई, लेकिन वे गांधी के खिलाफ कभी नहीं गए। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। जेपी पर गांधी के विचारों और सिद्धांतों का खूब असर हुआ। आजादी के बाद उन्होंने राजनीतिक पदों से दूरी बनाए रखी। राजनीति से उन्हें बहुत निराशा मिली। बाद के दिनों में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भागीदारी निभाई।