हरिमोहन झा मैथिली साहित्य के वो चितेरे हैं, जिन्होंने कभी सोचा नहीं था कि वो लेखक बनेंगे लेकिन कन्यादान नामक उपन्यास ने उन्हे रातों रात प्रसिद्ध कर दिया । उनकी प्रसिद्धि का ड़का ये है कि मैथिली साहित्य में आज भी उनकी डिमांड किसी भी अन्य लेखक से कई गुणा ज्यादा है । हरिमोहन झा का जन्म वैशाली जिले के बाजितपुर गांव में हुआ था । वो एक जाने-माने राइटर और क्रिटिक थे । अगर उनका दो लाइन में इंट्रो देना हो तो एक ऐसा शख्स जो धार्मिक ढकोसलाओं के खिलाफ लिखता था. खांटी आलोचक था । इनके पिता जनार्दन झा “जनसीदन” मैथिली और हिंदी के कवि और राइटर थे । हरिमोहन झा ने भी अपनी ज्यादातर राइटिंग मैथिली में ही की है । जिसको बाद में हिंदी और दूसरी भाषाओं में ट्रांसलेट किया गया । अंग्रेजी में इनका रिसर्च है “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनालिसिस इन इंडियन फिलॉसफी” । मैथिली साहित्य का मतलब आज भी डॉ हरिमोहन झा होता है। आज भी मिथिला सहित पूरे देश में हरिमोहन झा की जितनी किताबें बिकती है उतनी आज तक किसी मैथिली साहित्यकार की नहीं बिकी है। सैप्पीमार्ट डॉट कॉम के सीईओ मुकुंद मयंक के अनुसार आज भी उनके पास कई लोग किताब के लिए आर्डर करते हैं। उसमे से अधिकांश लोग हरिमोहन झा का खटर ककाक तरंग और द्विरागमन की डिमांड करते हैं। वहीं मैथिली मचान की सविता झा खान कहती हैं कि विश्व पुस्तक मेला में लोग बार बार हरि मोहन झा को ही तलाशते थे।
हरिमोहन झा के लिटरेचर में वो दम है कि आज भी उनकी राइटिंग का डंका बजता है। झा ने बहुत सी किताबें लिखीं जिनमें ‘कन्यादान’, ‘द्विरागमन’, ‘प्रणम्य देवता’,‘रंगशाला’, ‘बाबाक संस्कार’, ‘चर्चरी’, ‘एकादशी’, ‘खट्टर काकाक तरंग’ और ‘जीवन यात्रा’ शामिल है। हरिमोहन झा को उनके लिटरेचर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।अपनी किताबों में झा ने हास्य व्यंग्य, कटाक्ष, के थ्रू सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वास और पाखंड पर जोरदार तमाचा मारा। मैथिली में तो आज भी हरिमोहन झा सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले राइटर हैं। पर इन सब के बावजूद भी हरिमोहन झा एक अनटोल्ड स्टोरी बने हुए हैं।
पिता जनार्दन झा ‘मिथिला मिहिर’ के एडिटर थे। दरभंगा में रहते थे। ‘मिथिला मिहिर’ मैथिली पत्रिका थी। जिसको दरभंगा महाराज चलाते थे। इस दौरान हरिमोहन झा ने एक बच्चे के तौर पर खांटी मिथिलांचल के कल्चर को बेहद करीब से देखा। पिता जी के एडिटर होने का हरिमोहन झा को यह फायदा मिला कि उन्हें स्कॉलर्स के साथ बचपन से ही उठने-बैठने का मौका मिला। 1924 में 16 साल की कम उम्र में ही उनका विवाह करा दिया गया। उसी समय उनके पिता जी कलकत्ता चले गए। वहीं नौकरी करने लगे। अपने पिता से दूर रहना हरिमोहन झा के लिए मुश्किल था। 1927 के कंबाइंड स्टेट इंटरमीडिएट एग्जामिनेशन में संस्कृत, लॉजिक और हिस्ट्री सब्जेक्ट्स के साथ फर्स्ट क्लास फर्स्ट आए।
उसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई पटना कॉलेज से की। उन्होंने इंग्लिश ऑनर्स से ग्रेजुएशन किया। हरिमोहन झा ने 1932 में फिलॉसफी में एमए किया। जिसमें उन्होंने बिहार-ओडिशा स्टेट लेवल पर टॉप किया। गोल्ड मेडलिस्ट बने। उसके बाद बी एन कॉलेज पटना में प्रोफेसर बने। ग्रेजुएशन के दिनों में हरिमोहन झा ने इलाहाबाद में अपनी कॉलेज की टीम को ऑल इंडिया डिबेट कम्पटीशन में लीड किया। और विजेता बने। कॉलेज में हरिमोहन झा के टैलेंट की धूम मचनी शुरू हो गई थी।
मुकुंद मयंक के अनुसार खट्टर काका धर्म और इतिहास, पुराण के अस्वस्थ, लोकविरोधी प्रसंगों की दिलचस्प लेकिन कड़ी आलोचना प्रस्तुत करनेवाली, बहुमुखी प्रतिभा के धनी हरिमोहन झा की बहुप्रशंसित, उल्लेखनीय व्यंग्यकृति है-खट्टर काका| आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व खट्टर काक मैथिली भाषा में प्रकट हुए। जन्म लेते ही वह प्रसिद्ध हो उठे। मिथिला के घर-घर में उनका नाम चर्चित हो गया। जब उनकी कुछ विनोद-वार्त्ताएँ ‘कहानी’, ‘धर्मयुग’ आदि में छपीं तो हिंदी पाठकों को भी एक नया स्वाद मिला। गुजराती पाठकों ने भी उनकी चाशनी चखी। वह इतने बहुचर्चित और लोकप्रिय हुए कि दूर-दूर से चिट्ठियाँ आने लगीं-‘‘यह खट्टर काका कौन हैं कहाँ रहते हैं, उनकी और-और वार्त्ताएँ कहाँ मिलेंगी?’’ खट्टर काका मस्त जीव हैं। ठंडाई छानते हैं और आनंद-विनोद की वर्षा करते हैं। कबीरदास की तरह खट्टर काका उलटी गंगा बहा देते हैं। उनकी बातें एक-से-ए अनूठी, निराली और चौंकानेवाली होती हैं। जैसे-‘‘ब्रह्मचारी को वेद नहीं पढ़ना चाहिए। सती-सावित्री के उपाख्यान कन्याओं के हाथ नहीं देना चाहिए। पुराण बहू-बेटियों के योग्य नहीं हैं। दुर्गा की कथा स्त्रैणों की रची हुई है।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को फुसला दिया है। दर्शनशास्त्र की रचना रस्सी देखकर हुई। असली ब्राह्मण विदेश में हैं। मूर्खता के प्रधान कारण हैं पंडितगण | दही-चिउड़-चीनी सांख्य के त्रिगुण हैं। स्वर्ग जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है..’’ खट्टर काका हँसी-हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं, उसे प्रमाणित किए बिना नहीं छोड़ते । श्रोता को अपने तर्क-जाल में उलझाकर उसे भूल-भुलैया में डाल देना उनका प्रिय कौतुक है । वह तसवीर का रुख तो यो पलट देते हैं कि सारे परिप्रेक्ष्य ही बदल जाते हैं । रामायण, महाभारत, गीता, वेद, वेदांत, पुराण-सभी उलट जाते हैं । बडे़-बड़े दिग्गज चरित्र बौने-विद्रूप बन जाते हैं। सिद्धान्तवादी सनकी सिद्ध होते हैं, और जीवमुक्त मिट्टी के लोंदे। देवतागण गोबर-गणेश प्रतीत होते हैं। धर्मराज अधर्मराज, और सत्यनारायण असत्यनारायण भासित होते हैं। आदर्शों के चित्र कार्टून जैसे दृष्टिगोचर होते हैं… वह ऐसा चश्मा लगा देते हैं कि दुनिया ही उलटी नजर आती है। स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित हिंदी पाठकों के लिए एक अनुपम कृति-खट्टर काका।