वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी रिकाॅर्ड बनाने को कुछ ज्यादा ही आतुर रहते हैं, पर राज्य के संसदीय इतिहास में एक रिकॉर्ड बनने को बेताब है- सोलहवीं विधानसभा को उपाध्यक्ष नहीं मिला। सदन को उपाध्यक्ष मिले, यह सत्ता पक्ष की जिम्मेवारी है। आज का सत्ता पक्ष अपने को समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर की विरासत का दावेदार भी कहता है। कर्पूरीजी के हिसाब से इस पद का हकदार विपक्ष है। फिर भी, यह कीर्तिमान बन रहा है। नीतीश के खास सिपहसालारऔर सूबे के संसदीय कार्यमंत्री श्रवण कुमार ने स्वीकार भी किया कि इसे लेकर सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की गई।
वैसे, राष्ट्रीय जनता दल की ओर से कोई दो साल पहले मुख्यमंत्री से उपाध्यक्ष का चुनाव कराने का मौखिक अनुरोध किया गया था। मगर उस पर सत्ता पक्ष की ओर आगे की कोई कार्रवाई नहीं की गई। उस पर विपक्ष ने भी कोई दबाव नहीं बनाया। आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह मानते हैं कि उनकी पार्टी ने भी इस पर गंभीरता नहीं दिखाई। उपाध्यक्ष के चुनाव के सवाल पर सत्ता या विपक्ष में यह उदासीनता क्यों रही, इसका जवाब कोई देने को तैयार नहीं है- न विपक्ष न सत्ता पक्ष। स्वाभाविक है कि अब जब चुनाव के कुछ ही महीने बचे हैं, तब कुछ होना-जाना नहीं है। संसदीय कार्यमंत्री ने कहा भी कि अब ‘विधानसभा का कार्यकाल बहुत दिनों का नहीं रह गया है।’ अर्थात, उपाध्यक्ष के चुनाव की वह बहुत जरूरत नहीं महसूस करते हैं।
संसद या विधानमंडल के सदनों में उपाध्यक्ष या उपसभापति का पद केवल अलंकरण का नहीं है। यह संसदीय व्यवस्था के तहत राजनीतिक तो है ही, सदनों के कार्य-संचालन की अघोषित जरूरत भी। ये पद कभी अलंकरण के रहे होंगे, पर बाद में यह राजनीतिक जरूरत बन गए। अध्यक्ष/सभापति और उपाध्यक्ष/सभापति के दोनों पदों पर सत्तारूढ़ दल (या गठबंधन) के नेता ही चुने जाते रहे थे। आरंभिक वर्षों में तो इन पदों को विद्वत्ता और संसदीय जानकारी से जोड़ कर देखा जाता था। पर बाद में ये पद सामाजिक समीकरण को साधने के उपकरण बन गए।
साल 1977 में इसमें नया तत्व जुड़ गया- सदन में उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने की परिपाटी बनी। इस शताब्दी के आरंभिक आम चुनावों तक यह परिपाटी तो ठीक से चली। पर अब इसमें विचलन आ गया- संसद से लेकर विधानमंडलों के सदनों तक। उपाध्यक्ष/उपसभापति का होना सदनों के कार्यसंचालन और उसके सचिवालयों के दैनंदिन कामकाज में ‘चेक-बैलेंस’ को भी ताकत प्रदान करता है- सत्ता के एकाधिकारवाद की प्रकृति परअंकुश लगाता है। ये पद विपक्ष के पास होने से सदन के संचालन और संसदीय मामलों से जुड़े मामलों के निष्पादन में विपक्ष की भागीदारी का भी संदेश जाता है।
बिहार में विधानसभा के उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने की परंपरा 1977 में शुरू हुई। उन दिनों कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे और उन्होंने मुख्य प्रतिपक्षी कांग्रेस को इस पद के लिए उम्मीदवार देने का अनुरोध किया था। कर्पूरी ठाकुर की समझ रही थीः सदन के संचालन में सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष की भी सक्रिय भूमिका होनी चाहिए क्योंकि सदन का व्यवस्थित संचालन दोनों पक्ष की जिम्मेवारी है। उस समय से 2005 तक इस परंपरा को बेरोक-टोक जारी रखा गया।
मगर 2010 के नवंबर में गठित पंद्रहवीं विधानसभा में इसमें विचलन आया। विधानसभा के गठन के कोई पौने दो साल तक विधानसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव ही नहीं कराया गया। 2012 में जब चुनाव कराया गया तो तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में छोटे भाई की भूमिका में भारतीय जनता पार्टी थी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सक्रिय पहल पर उसे ही यह पद दिया गया।
बिहार बीजेपी के बड़े नेता सुशील कुमार मोदी की अरुचि के बावजूद उसके असंतुष्ट नेता अमरेंद्र प्रताप सिंह को उपाध्यक्ष की कुर्सी मिली। इसके साथ ही, नीतीश कुमार के कड़े रुख के कारण उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने की कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक परंपरा को एनडीए ने तोड़ा। तब से इस पद पर बीजेपी अपना हक जमा रही है। इस बार भी बीजेपी ने अपना दावा किया है, पर वह भी उदासीन ही दिख रही है।
जनता दल (यू) के सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों या मुख्य प्रतिपक्षी- राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद- दोनों सूबे के महान समाजवादी कर्पूरी ठाकुर के नाम पर अपनी राजनीति को शान चढ़ाते रहे हैं। पिछले दस-बारह वर्षों से बीजेपी भी कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे ले जाने के लिए खुद को समर्पित बता रही है। बीजेपी सहित सूबे के तमाम राजनीतिक दल उनके नाम पर अतिपिछड़ों को गोलबंद करने की हर सूरत कोशिश में साल में कम-से-कम दो बार उनके नाम पर आयोजन तो करते ही हैं। ऐसे में उनकी विरासत- विधानसभा में उपाध्यक्ष की कुर्सी पर विपक्ष के हक- को इन दलों ने धता बता दिया, यह गौर करने की बात है।
बिहार के राजनीतिक हलकों की मौखिक खबरों पर भरोसा करें तो तीनों- जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी- तीनों दलों के सुप्रीमो या सुप्रीमो-सदृश नेताओं के अपने-अपने स्वार्थ रहे हैं। 2010 के विधानसभा चुनावों में एनडीए की ऐतिहासिक जीत हई थी और मुख्य विपक्षी आरजेडी 21 सीटों पर सिमट गई थी। इसके अलावा, कांग्रेस और एलजेपी को चार-चार सीटें मिली थीं। सदन नेता नीतीश कुमार ने विधायकों की पर्याप्त संख्या न होने के बावजूद आरजेडी विधायक दल के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी को प्रतिपक्ष के नेता का दर्जा दे दिया। पर विधानसभा में उपाध्यक्ष का पद आरजेडी या किसी भी विपक्षी दल को देने से साफ मना कर दिया। उन्होंने ऐसा क्यों किया, इसका जबाव किसी के पास नहीं है।
पंद्रहवीं विधानसभा के आरंभिक महीनों में ही उपाध्यक्ष की चर्चा में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के साथ-साथ तीसरे पक्ष- बीजेपी की इंट्री हुई। एनडीए में ‘बड़े भाई’ नीतीश कुमार की ओर से उसे उपाध्यक्ष के लिए उम्मीदवार देने को कहा गया। यहां रोचक तथ्य यह है कि उस समय आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद और उनकी पार्टी ने भी उपाध्यक्ष पद की मांग नहीं की। ऐसा क्यों हुआ, इसका सही जबाव देना कठिन है।
सो, कर्पूरी ठाकुर की संसदीय राजनीतिक की एक महत्वपूर्ण विरासत को उनका नाम जपने वाले नेता-समूह ने इस तरह खत्म होने दिया। लेकिन अब तो सदन के उपाध्यक्ष की संवैधानिक व्यवस्था को ही दरकिनार किया जा रहा है। इस सोलहवीं विधानसभा को उपाध्यक्ष उपलब्ध कराने पर सत्तारूढ़ एनडीए में कोई सक्रियता नजर नहीं आती है। विधानमंडल का बजट अधिवेशन शुरू हो गया है जो मार्च तक चलेगा। इसके बाद अगस्त में इसका संक्षिप्त मॉनसून अधिवेशन होना है।
हालांकि इस संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में अब भी कोई अड़चन नहीं है। बिहार विधानसभा में ऐसा उदाहरण है। 1990 के विधानसभा के तीन-चार महीने पहले भी उपाध्यक्ष का चुनाव हुआ था। उन दिनों विपक्ष के सीनियर विधायक रघुवंश प्रसाद सिंह इस पद पर चुने गए थे। लेकिन इस बार अब तक उपाध्यक्ष के चुनाव को लेकर कोई सरगर्मी नहीं दिखती है। बिहार एनडीए में ‘छोटा भाई’ बीजेपी को ‘बड़े भाई’ ने उपाध्यक्ष के लिए अपने किसी सीनियर विधायक का नाम देने को कहा था। पर यह बात आई-गई जैसी ही रही।
बीजेपी के कुछ नेताओं पर भरोसा करें तो प्रदेश नेतृत्व का एक ताकतवर तबका इस पद परअपने किसी खास को बैठाना चाहता है जिस पर केंद्रीय नेतृत्व की सहमति नहीं मिल रही है। गत विधानसभा में भी अमरेंद्र प्रताप सिंह को राज्य नेतृत्व के इस धड़े की इच्छा के विपरीत ही उपाध्यक्ष बनाया गया था। उन दिनों तो एनडीए के ‘बड़े भाई’ भी अमरेंद्र प्रताप सिंह के विरोध में ही थे। बहरहाल, नीतीश कुमार के कारण कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक परंपरा को दरकिनार कर दिया गया, तो अब एनडीए (अर्थात नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी) की उदासीनता से संवैधानिक व्यवस्था दांव पर है। बिहार के संसदीय इतिहास में यह नया रिकॉर्ड बन रहा है।
बिहार एनडीए में ‘छोटा भाई’ बीजेपी को ‘बड़े भाई’ ने उपाध्यक्ष के लिए अपने किसी सीनियर विधायक का नाम देने को कहा था। पर यह बात आई-गई जैसी ही रही। प्रदेश नेतृत्व का एक ताकतवर तबका इस पद पर अपने किसी खास को बैठाना चाहता है, जिसपर केंद्रीय नेतृत्व की सहमति नहीं मिल रही है। गत विधानसभा में भी अमरेंद्र प्रताप सिंह को राज्य नेतृत्व के इस धड़े की इच्छा के विपरीत उपाध्यक्ष बनाया गया था। बहरहाल, मुद्दे की बात यही है कि एनडीए की उदासीनता का ही नतीजा है कि संवैधानिक व्यवस्था दांव पर है।
साभार – नवजीवन