न्यूनमत समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग को लेकर पंजाब-हरियाणा सहित कई राज्यों के किसान आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन बिहार के किसान सड़क पर नहीं उतरे हैं. देश की राजधानी दिल्ली को घेरे बैठे किसानों की प्रमुख चिंताओं में एक चिंता है कि आने वाले दिनों में एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियां खत्म हो जाएंगी। यह काम लगभग डेढ़ दशक पहले बिहार में किया गया था। उस समय भी वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ही सरकार थी।
2006 में बिहार में एपीएमसी अधिनियम खत्म करके इसे एक बड़ा सुधारवादी कदम बताया गया था। उस समय नीतीश कुमार को सत्ता संभाले एक साल ही हुआ था। लगभग 14 साल बीत चुके हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इतने साल बाद भी किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए अनुकूल बाजार नहीं मिल पाया है और किसान अपनी उपज औने-पौने दामों पर निजी व्यापारियों को बेच रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि जब पंजाब-हरियाणा सहित कुछ और राज्यों के किसान सड़क पर हैं, ऐसे समय में भी बिहार के किसान सड़क पर नहीं हैं। विशेषज्ञ इसकी वजह जागरूकता और एकता की कमी बताते हैं। राज्य में लगभग 97 फीसदी सीमांत और छोटे किसान हैं, इनमें से बहुत कम ऐसे हैं, जिन्हें अपनी उपज बेचने पर लागत से कुछ ज्यादा मिल जाता हो।
अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर ने कहा, “मोदी सरकार का कहना है कि तीन नए कृषि कानूनों से किसानों पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। तर्क का आधार देखा जाए तो बिहार के लगभग 94 फीसदी किसान ऐसे हैं, जो मंडियों में नहीं जाते और उन्हें कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं मिला, उनकी आर्थिक स्थिति में पिछले 14 साल में सुधार होने चाहिए थे, लेकिन उनकी हालत सुधरने की बजाय बिगड़ी है।”
पटना स्थित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक दिवाकर कहते हैं कि इस बार राज्य के किसानों ने 900-1,000 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब अपना धान बेचा है्र जबकि केंद्र द्वारा निर्धारित एमएसपी 1,868 रुपए है। उन्होंने कहा कि लगभग आधे किसान अपनी लागत की वसूली भी नहीं कर पाते।
एक विशेषज्ञ ने कहा कि किसानों ने पहले अपनी फसलें व्यापार मंडल (व्यापारियों के संगठन) के माध्यम से बेचीं। कुछ गिने चुने किसान ही बाजार तक पहुंच पाए, लेकिन इन किसानों को फसल की उचित कीमत मिली। मार्केट यार्ड की ओर से किसानों को धान या अन्य फसल की नमी सुखाने के लिए जगह तक दी गई।
अर्थशास्त्री अब्दुल कादिर ने कहा,“एपीएमसी अधिनियम को खत्म करने से पहले किसान अपनी उपज को बाजार समितियों को बेचते थे, जहां न्यूनतम मूल्य की गारंटी थी। लेकिन इस प्रणाली के निरस्त होने के बाद औने-पौने दामों में अपनी फसल बेचने लगे, क्योंकि उनके पास भंडारण की सुविधा नहीं होती और उन्हें इस बात का डर रहता है कि उनकी उपज खराब हो जाएगी।”कादिर कहते हैं कि समय के साथ बिहार में खेती एक गैर-व्यवहारिक पेशा बन गया है। बिहार के किसान अब पंजाब और हरियाणा में मजदूरों के रूप में काम कर रहे हैं।
व्यापार मंडल का नेतृत्व कर चुके बलिराम शर्मा कहते हैं कि एपीएमसी अधिनियम के निरस्त होने के बाद बिहार के किसानों को काफी नुकसान हुआ। बिहार के अधिकांश किसानों के लिए खेती आजीविका का एक स्रोत है। वे अपने बच्चों की शिक्षा फीस का भुगतान करने, दवाइयां खरीदने या अपनी बेटियों के लिए शादियों की व्यवस्था करने के लिए अपनी उपज बेचते हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे अपनी फसल स्थानीय व्यापारियों को औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हैं। शर्मा मगध सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड के निदेशक रह चुके हैं।
अकसर प्राथमिक कृषि ऋण सोसायटी (पैक्स) ज्यादातर नमी का हवाला देते हुए किसानों से धान खरीदने से इनकार कर देती है, लेकिन चूंकि किसानों को तत्काल पैसे की जरूरत होती है, इसलिए वे अपनी फसल स्थानीय व्यापारियों को कम कीमतों पर बेच देते हैं। इसके अलावा पैक्स से उन्हें भुगतान भी देर से मिलता है।
शर्मा के मुताबिक 1968-69 में गेहूं 76 रुपये प्रति क्विंटल में बेचा गया था, जबकि एक स्कूली छात्र का वेतन 70-80 रुपए था। इसका मतलब है कि एक शिक्षक अपने एक महीने के वेतन से एक क्विंटल गेहूं नहीं खरीद सकता था। पिछले पांच दशकों में, एक शिक्षक का वेतन औसतन 70,000 रुपए तक बढ़ गया है, लेकिन गेहूं का मूल्य लगभग 2,000 रुपये प्रति क्विंटल है।
वहीं, कृषि विशेषज्ञ रंजन सिन्हा कहते हैं कि बिहार में औसत स्थानीय होल्डिंग का आकार 0.9 हेक्टेयर है, क्योंकि परिवार में बिखराव हो गया है। बिहार में खेती उद्यमिता नहीं है, बल्कि आजीविका का एक स्रोत है। सिन्हा ने कहा कि एपीएमसी अधिनियम का व्यापक रूप से बिहार के किसानों पर कोई असर नहीं पड़ा है, क्योंकि उनमें से अधिकांश सीमांत और छोटे किसान हैं।
उन्होंने कहा कि विपणन समितियां भ्रष्टाचार का केंद्र थीं और सरकार ने अधिनियम को रद्द करके सही काम किया। उनके अनुसार, राज्य में केवल एक प्रतिशत किसान बड़ी श्रेणी में आते हैं, जबकि केवल तीन प्रतिशत मध्यम वर्ग से है।
किसानों को नहीं मिली लागत
वहीं, कई किसानों ने कहा कि उन्हें अपनी उपज की लागत तक नहीं मिली, जिससे उनके लिए ऋण चुकाना मुश्किल हो गया। जमुई जिले के किसान नरेश मुर्मु कहते हैं, “मैंने इस सीजन में खेती में 12,000 रुपए का निवेश किया, लेकिन धान बेचने के बाद केवल 8,000 रुपए ही मिले। मुझे 4,000 रुपये का नुकसान हुआ है।“
पूर्वी चंपारण के एक अन्य किसान सोमनाथ सिंह ने कहा कि उन्होंने 1,868 रुपये के एमएसपी के मुकाबले 10 क्विंटल धान 1,500 रुपये प्रति क्विंटल में बेचा। वह कहते हैं कि हर साल उन्हें भारी नुकसान होता है, क्योंकि किसानों में कोई एकता नहीं है और क्योंकि उनके पास कृषि कानूनों के बारे में जागरूकता की कमी है।
उन्होंने कहा, “इससे पहले, हमें अपनी उपज का अच्छा दाम मिलता था, लेकिन एपीएमसी अधिनियम के खत्म होने के बाद स्थिति खराब हो गई। पैक्स नमी का हवाला देते हुए हमारी उपज खरीदने से मना कर देता है; अगर वे उन्हें खरीद लेते हैं, तो उन्हें बकाया भुगतान करने में महीनों लग जाते हैं।“
सिंह कहते हैं कि भंडारण की सुविधा न होने के कारण हम अपनी उपज जल्द से जल्द बेचना चाहते हैं। उन्होंने कुछ समय पहले ही स्थानीय व्यापारियों को 8-10 रुपये प्रति किलोग्राम के रेट पर आलू और प्याज बेचे थे, जबकि वही व्यापारी आलू और प्याज 50 रुपए और 70 रुपए में बेच रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि हमारे पास अपनी उपज को स्टोर करने के लिए कोई जगह नहीं है।“
प्रगति कृषि मंच के संयोजक किशोर जायसवाल ने कहा कि बिहार में एपीएमसी अधिनियम खत्म करके बहुत ही व्यवस्थित रूप से मार्केट यार्डों के तत्कालीन बुनियादी ढांचा खत्म कर दिया गया। साथ ही, किसानों को उनकी उपज के लिए अच्छी दर प्राप्त करने की एक बड़ी सुविधा को कम कर दिया गया।लेकिन ऐसा उस राज्य में हुआ है जहां 70 फीसदी से अधिक आबादी कृषि कार्यों में लगी हुई है।
रिपोर्ट -down to earth