देखा कि राज्य सरकार ने विज्ञापन निकाला है कि अख़बारों में काम करने वाले पत्रकार सरकारी योजनाओं की तारीफ़ में लिखने के लिए आवेदन करें। उन्हें एक लेख के 15000 दिए जाएंगे। इसके अलावा 5 हज़ार की प्रोत्साहन राशि भी। ऐसे 30 लेख छपेंगे। सरकार के डर से वहां के अख़बार वैसे ही ख़त्म हो चुके हैं। अख़बार पर दबाव भी होगा कि पत्रकार का लेख छापें। बाद में उन लेखों का संग्रह छापा जाएगा और अख़बार और पत्रकार का नाम दिखाकर दावा होगा कि हमारी योजनाएं ज़मीन पर अच्छा काम कर रही हैं। वैसे भी आप देख रहे होंगे कि अख़बारों में सरकार की योजनाओं की कम ही कठोर समीक्षा छपती है। एक दो रूटीन टाइन की जनसमस्या छाप कर पत्रकारिता का धर्म पूरा कर लिया जाता है।
अब अगर इसके बाद भी आप उन अख़बारों को ख़रीद रहे हैं तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता है। यह दर्ज किया जाना चाहिए कि लोग बुरी पत्रकारिता को भी पैसे दे सकते हैं। चाटुकारिता का भी मोल है। बेहतर होता कि आप अख़बार और चैनलों के पैसे को प्रधानमंत्री राहत कोष में भेज देते और अपने बचे हुए समय में टहलते या किताबें पढ़तें। ख़ुद को अंधेरे में रखने के लिए आप मेहनत की कमाई का पांच सौ से लेकर आठ सौ रुपया ख़र्च कर रहे हैं। जब तक आप इन अख़बारों और चैनलों को बंद नहीं करेंगे तब तक पत्रकारिता में बदलाव नहीं आएगा। मतलब जो अख़बार या चैनल आपकी बौद्धिकता का अपमान करते हों, खुलेआम, उसे आप पैसे कैसे दे सकते हैं? कायदे से चुनाव तक के लिए आपको अख़बार बंद कर देने चाहिए। वैसे भी उसमें कुछ छपने वाला नहीं है। मुझे झारखंड के नौजवानों से कोई उम्मीद नहीं है। सरकार उन्हें बीस साल नौकरी नहीं देगी तो भी वे खुश रहेंगे।
चुनाव आते ही चैनलों पर पंचायत टाइप के कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं। भव्य मंच बन जाता है। मंत्री जी आते हैं और माइक लेकर जो मन में आता है, बोलते चले जाते हैं। उन कार्यक्रमों के सवाल जवाब में विपक्ष के आरोपों के बहाने पूछने का धर्म जनता के सामने निभा दिया जाता है। पत्रकार अपनी तरफ से किसी योजना को लेकर रिसर्च नहीं करता और मंत्री को नहीं घेरता है। संतुलन के लिए विपक्ष के दो चार नेता भी होते हैं। मगर पूरा कार्यक्रम विज्ञापनदाता सरकार के पक्ष में झुका होता है। ऐसे कार्यक्रम आचार संहिता के ठीक पहले शुरू किए जाते हैं। चुनाव के समय पहले रिपोर्टर हर दिशा में जाते थे। तरह तरह की ख़बरें लेकर आते थे। उसकी जगह अंचायत-पंचायत टाइप के मॉडल खड़े किए गए हैं ताकि स्क्रीन को भरा जा सके। इसके बहाने ज़मीन की सच्चाई को आने से रोका जा सके। आप ऐसे कार्यक्रम पत्रकारिता समझ कर देखते हैं और ख़ुशी ख़ुशी उल्लू बनते हैं।
मैं यह समझता हूं कि न्यूज़ चैनल चलाना काफी महंगा है। इसलिए चैनल वाले तरह तरह के रेवेन्यू मॉडल खड़ा करते हैं। हम सभी करते हैं लेकिन जब चुनाव के समय ऐसे कार्यक्रम हो तो थोड़ी सतर्कता से देखिए। जो चैनल सरकार की खुशामद नहीं करता है, उसे चुनावी राज्य वाली सरकार विज्ञापन नहीं देती है। लिहाज़ा आप उसके स्क्रीन पर पंचयात टाइप के कार्यक्रम नहीं देखते होंगे। अख़बार वाले भी टीवी की देखा-देखी ऐसे मंच बनाने लगे हैं। अब तो ज़िलों में भी यही होने लगा है। ऐसे कार्यक्रमों की तस्वीरों से पूरा पन्ना भर दिया जाता है। जहां जहां चुनाव है, वहां-वहां ऐसे कार्यक्रम बढ़ जाएंगे।
एक सजग दर्शक के रूप में आपको तय करना है कि क्या आप नियमित अपमान कराना चाहते हैं? मेरे हिसाब से तो आपको नहीं देखना चाहिए, फिर भी आप देख रहे हैं तो ज़रा ग़ौर से देखिए। आपको पता चलेगा कि कैसे अब सारा चुनाव बीत जाता है और जनता का मुद्दा सामने नहीं आता है। सत्ता पक्ष जो मुद्दा तय करता है उसी के आस-पास डिबेट होने लगता है और चुनाव गुज़र जाता है। इस तरह आप चुनाव के समय किसी मुद्दे पर जनदबाव बनाने का मौका गंवा देते हैं। चैनल देखने के लिए आप काफी पैसे ख़र्च करते हैं। जो समय लगाते हैं उसकी भी कीमत है। इसलिए आप इस पैसे को प्रधानमंत्री राहत कोष में दे दें और जहां जहां चुनाव हो रहे हैं, वहां वहां चैनल न देखें।
मुख्यधारा का मीडिया भारत के लोकतंत्र की हत्या कर चुका है। चंद अपवादों के सहारे वह पत्रकारिता का भ्रम पैदा कर रहा है। यह बात बिका हुआ पत्रकार भी मानता है और जो मजबूरी में नौकरी कर रहे हैं वो भी मानते हैं। बहुत से पत्रकार हैं जो चाहते हैं लिखना मगर लिखने नहीं दिया जाता है। आख़िर कितने पत्रकार नौकरी छोड़ सकते हैं। आप दर्शक चाहें तो इस स्थिति को बदल सकते हैं। न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दीजिए। इससे चैनलों पर सुधार करने का दबाव बनेगा। आप भले उस सत्ता पक्ष को वोट दे आएं जिसके दबाव में पत्रकारिता का सत्यानाश हो गया है लेकिन आप एक घटिया अख़बार या चैनल को अपने पैसे से कैसे प्रायोजित कर सकते हैं?
हिन्दी प्रदेशों के साथ बहुत धोखा हुआ है। बिहार झारखंड, यूपी, राजस्थान या मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़। इन प्रदेशों में उच्च गुणवत्ता वाले एक भी शिक्षण संस्थान नहीं हैं। ज़िलों में कालेज बर्बाद हैं। घटिया किस्म के शिक्षक हैं। जो आज कल राजनीति का सहारा लेकर क्लास रूम से छुटकारा पा गए हैं। ज़ाहिर है हिन्दी प्रदेश का युवा मारा मारा फिर रहा है। पहले वह कालेज से ठगा कर आता है, फिर कोचिंग में पैसे देकर ठगाने जाता है और उसके बाद सरकारी नौकरी की परीक्षा में कई साल तक ठगा जाता रहता है। उसके पास जानकारी हासिल करने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। एक मीडिया था जिससे उसे कुछ पता चलता था। अब आप खुद ही उस मीडिया का मूल्यांकन कर लीजिए। हिन्दी प्रदेशों का मीडिया अपने नौजवानों के लिए अंधेरा पैदा कर रहा है। उसे पता है कि हिन्दी प्रदेश के युवा सांप्रदायिक हैं, जातिवादी हैं। उनमें युवा होने का स्वाभिमान नहीं बचा है।
मुझे नहीं पता कि चुनावी प्रदेशों के कितने नौजवान अख़बार बंद करेंगे। चैनल बंद करेंगे लेकिन मैं यह बात कहता रहूंगा। मुझे पता है कि आपको बर्बाद कर दिया गया है। आपसे कोई शिकायत नहीं है। एक सिस्टम के तहत आपकी क्षमता को कुंद किया गया है। वर्ना आप छात्रों की क्षमता को मैं जानता हूं। मौका मिले तो आप क्या नहीं कर सकते हैं। मगर नेता समझ गए हैं। इन्हें मौका मत दो। बल्कि इन्हें बर्बाद करो ताकि ख़ुद के लिए मौका बनता रहे। मुझे हिन्दी प्रदेश के युवाओं से ज़रा भी उम्मीद नहीं है। मैं जानता हूं कि वे हमेशा के लिए उलझ गए हैं। मगर उनसे नाराज़गी भी नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं कि उनकी झमता पर किस किस ने रेत डाली है। उनमें स्वाभिमान ही नहीं बचा है। अगर स्वाभिमान बचा होता तो आज सुबह ही झारखंड की जनता अपने घर से अख़बारों को सड़क पर फेंक देती और न्यूज़ चैनलों के कनेक्शन कटवा देती। जय हिन्द।
यह लेख एनडीटीवी के जाने माने पत्रकार, रैमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता रविश कुमार ने कल अपने फेसबुक वाल पर लिखा है । हवाबाज की टीम उसे वहीं से सीधे चस्पा कर रही है ।