कल सुबह ‘कौन बनेगा करोडपति’ की प्रतिभागी आरती की एक सहेली ने बताया कि दरभंगा से संबंधित एक पोस्ट आरती से पूछा गया है। मैंने सवाल किया कि जबाव दे पायी, उसने कहा,’ रात में देखना पता चल जायेगा।
रात को बहुत दिनों बाद यह कार्यक्रम देखने बैठी। दरभंगा को लेकर लोगों में जानकारी का अभाव है, यह आप भी जानते हैं। दरभंगा को लेकर झूठ और भ्रम भी बहुत है, लेकिन झूठ से खतरनाक होता है परसेप्शन या सिड्रोम।
दरभंगा के साथ वही खतरनाक तत्व बहुत अधिक मात्रा में है। आरती के दिमाग में मोती लाल नेहरू थे। मोती लाल 1888 में महज एक प्रतिभावान वकील थे, जो यूपी में फैले राज दरभंगा के कारोबार का कानूनी पक्ष देखने के लिए बाद में नियुक्त हुए और उन्हें राज दरभंगा प्रतिदिन 2500 रुपये फीस अदा करती थी। यह बात 1888 नहीं बल्कि 1922 की है। आनंद भवन उसके बाद बनाया गया। मतलब 1888 में आनंद भवन भी नहीं बना था और मोतीलाल नेहरू भी देश के सबसे धनी वकील नहीं बने थे।

आज इलाहाबाद को लेकर जो भी परसेप्शन है, वो मोतीलाल नेहरू से शुरु होता है और जवाहर लाल नेहरू पर खत्म हो जाता है। आरती भी इसी भंवर जाल में फंस गयी। दरभंगा सिंड्रोम से वो बाहर नहीं निकल पायी। अधिकतर मैथिल इस सिंड्रोम से बाहर नहीं निकल पाते हैं।
झूठ से खतरनाक होता है परसेप्शन या सिड्रोम, मैं इस लिए कह रही हूं, क्योंकि सही उत्तर बताते हुए अमिताभ बच्चत भी परसेप्शन के भंवर में फंस गये। इलाहाबाद के रहनेवाले बच्चन कोई और नहीं हरिवंश राय के सुयोग्य पुत्र हैं। बच्चन परिवार का अमरनाथ झा परिवार से और नेहरू परिवार से गहरा रिश्ता रहा है। अमिताभ खुद सांसद रह चुके हैं। ऐसे में जब उन्होंंने कहा कि लक्ष्मीश्वर सिंह राजा थे, वो नेता नहीं थे, तो एक झटका लगा कि इतिहास पर से धूल अभी और हटानी है।
1888 में मदन मोहन मालवीय और मोतीलाल नेहरू दोनों कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। लक्ष्मीश्वर सिंह कांग्रेस के “फाउंटेन फादर” थे। कांग्रेस के संस्थापकों में थे। बीमारी के कारण बॉम्बे नहीं गये थे, इसलिए उस तस्वीेर में वो नहीं है।

पहला परसेप्शन तो गलत रहा कि वो कांग्रेसी नहीं महाराजा थे। अब दूसरा परसेप्शन पर बात करें। 1883 में लक्ष्मीश्वर सिंह राज्य परिषद (जिसे अभी राज्यसभा कहा जाता है) के लिए सर्वसम्मति से निर्वाचित हुए और 1888 में वो महाराजा नहीं, बल्कि विधान सदन के सांसद थे। एक महाराजा के तौर पर नहीं, बल्कि एक सांसद के तौर पर उन्होंने यह काम किया था। हिंदुस्तान की जनता को हिंदुस्तान की जमीन पर अगर सभा करने से कोई रोकेगा, तो जमीन खरीद लेना ही जनप्रतिनिधि का पहला काम होना चाहिए। उन्होंने वही किया। वो विधान सदन में प्रतिनिधि थे, अगर वो नेता नहीं कहे जायेंगे, तो फिर कौन नेता था उस समय इस देश का…

याद रखिए 1888 के इस विद्रोह के कारण ही 1893 के चुनाव में वायसराय ने उन्हें सदन में आने से रोकने के लिए भारतीय संसदीय इतिहास में एक नया पन्ना जोडा था, जिसे आज हम “मतदान” कहते हैं। बहरहाल, इतिहास यह कहता है कि लक्ष्मीश्वर सिंह को चुनाव में हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था…वो भारत के पहले जनप्रतिनिधि थे..और मरते दम तक रहे..
लेखिका – मैथिली के पहले इपेपर इसमाद डॉट की प्रधान संपादक है। फेसबुक पर अपने बेबाक लेखनी के लिये प्रसिद्ध है । इनसे esamaad@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।