
किसी ज़माने में कोटा अपनी साड़ियों के लिए विश्वविख्यात था। लेकिन आज कोटा की वो पहचान बदल गयी अब उसकी पहचान बदल कर कोचिंग हब के रूप में हो गयी है । कोटा में पढ़कर कितने बच्चे कितनी सफलता पाते है ये अनुपात तो नहीं पता पर वहां जाने वाले बच्चो की संख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है । लगभग उसी तर्ज हमारा शहर पटना अब कोचिंगों का शहर बनता जा रहा है । आए दिन अखबार ,लोकल चैनल और मोहल्ले के मकानों की बाहरी दीवाले किसी न किसी कोचिंग या टीचर के नाम के इश्तेहार से भरे हुए हैं । आशुतोष सर. वर्मा सर, झा सर और न जाने क्या क्या । आज अगर शाम को आप महेन्द्रू, नया टोला से ले कर एस पी वर्मा रोड या बोरिंग रोड जैसे इलाकों की ओर जाना चाह रहे हैं तो घंटे दो घंटे ज्यादा लेकर चले, क्योकि शाम के समय ये सभी सडके कोचिंग जाने वाले हजारों की संख्या वाले बच्चो से भरा रहता है । निःसंदेह इन बच्चो में बड़ी संख्या में आस पास के गांव देहात से आने वाले बच्चो की रहती है ।
ऐसा नहीं है इस तरह के क्लासों की संख्या मात्र इंजीनियरिंग, मेडिकल या किसी टेक्निकल पढाई तक सिमित है बल्कि छोटे छोटे बच्चो के ट्यूशन की प्रवृति भी दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है । अगर उच्च शिक्षा की बात करे तो एक ज़माने में पटना के लगभग सभी कॉलेज ( साइंस कॉलेज ,पटना कॉलेज या वुमन्स कॉलेज ) जैसे कॉलेजों की तूती पूरे देश में बोलती थीं और इन कॉलेजोँ में दाखिला पाना किसी भी विद्यार्थी का सपना होता था । वही आज सारे कॉलेज गुंडागर्दी और राजनीतिक अखाड़े के रूप में तब्दील हो रहे हैं । हर तीसरे महीने प्रोफेसर्स की हड़ताल जिसका मुख्य आधार केंद्रीय वेतनमान की मांग ।
किसी ज़माने में निरीह कहे जाने वाले गरीब प्रोफेसर्स की तनख्वाह शायद रिटायरमेंट तक भी उतनी नहीं थी जितनी आज किसी नए की सैलरी है, और तारीफ की बात ये की जैसे-जैसे यूजीसी छठा ,सातवां और न जाने कितने वेतनमान लागू होते गए उसी तरह सी सॉ के खेल की तरह पढाई का स्तर गिरता गया । ऐसे में कोचिंग वालो का वर्चस्व बढ़ता गया और गर्जियन पीसते गए । पहले भी बच्चे मेडिकल, इंजीनियरिंग या कॉम्पिटेटिव परीक्षा पास करते थे, लेकिन उस वक़्त कॉलेज की अच्छी पढाई ही इसकी भरपाई कर देता था । पहले की तुलना में प्रतियोगिता बढ़ी है लेकिन हर साल खुलने वाले कितने ही सरकारी कॉलेजो की संख्या भी तो लगातार बढ़ती ही जा रही है। किसी भी साधारण कोचिंग की फीस लाखों में है । प्रतियोगिता की दौड़ में लाचार माता पिता किसी भी तरह बच्चों के लिए फीस जुटा रहे हैं लेकिन परिणाम उनके उम्मीदों के अनुरूप नहीं आ रहा है । लाखों बच्चें सालों से इन संस्थानों में करोड़ो की फीस उड़ा रहे हैं और बेरोजगारी की चक्की में पीसकर या तो गलत राह चुन लेते हैं या फिर वापस घर लौटकर कुछ रोजी-रोजगार कर लेते हैं ।