रामचंद्र झा
भारतीय राजनीति के कई पक्ष है ,एक पक्ष विपक्ष भी है। यूं तो विपक्ष की भूमिका संविधान सभा के माध्यम से शुरुआत से ही संविधान में वर्णित है, मगर ऐसा माना जाता है इसके मजबूत आधार राम मनोहर लोहिया ने संसदीय राजनीति में रखे थे। लोहिया जी के आकस्मिक निधन के बाद कुछ समय के लिए यह स्थान रिक्त रहा ,परन्तु जल्द ही JP के अगुवाइ में विपक्ष एकजुट होता चला गया। अब JP खुद चुनाव लड़े नही तो संसदीय राजनीति में कुछ नए चेहरे आगे आये। संघर्ष का नया पर्याय वाला चेहरा जो आगे चल कर सामने आया, वो थे बनारस राजघराने के राजनारायण। इनके संघर्ष और लड़ने कई किस्से हैं ।
आज बात उनके सबसे बड़े संघर्ष और उनके कमजोरी की । 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने और चुनाव के परिणाम के खिलाफ न्यायालय जाने के साथ ही राजनारायण का राजनैतिक कद बहूत बढ़ गया। अब राज नारायण पूरे देश में विपक्ष के चेहरा के तौर पर घूमते और विभिन्न सभा, सेमिनार में आकर्षण के केंद्र रहते। एक बात और थी मुद्दा चाहे जो भी हो सामान्यतया वो बोलते-बोलते इंदिरा गांधी पर ही आ जाते, अन्य मुद्दे गौण हो जाते। खैर इस बात का उनको फायदा भी मिला और वह 1977 का चुनाव जीते भी और मंत्री भी बने, मगर जो नही बदला वो था उनका तेवर। अब भी वो अपने काम के चर्चे से ज्यादा इंदिरा की बुराई में ही लगे रहते। आम जनमानस उनके इस रवैये से धीरे-धीरे ऊबते गए। नतीजा ये हुआ कि वो अगला चुनाव हार गए ।
राम मनोहर लोहिया ने नेहरू के खिलाफ चुनाव में कहा था, अगर मैं पर्वत से टकराउंगा तो अगर मैं उसे तोड़ नही सकता हूँ तो क्या हुआ उसे हिला तो जरूर दूंगा। लोहिया के अनुयायी उन से एक कदम आगे बढ़े, उन्होंने पर्वत से टकराने के बाद पर्वत को तोड़ भी दिया। मगर उसके बाद वंहा रास्ता नही बना सके । अंतिम लक्ष्य तो सुगम रास्ता ही है। भारतीय राजनीति में सत्ता संघर्ष के कई कहानी है, मगर सत्ता को विकास से जोड़ने और उसमें सफल होने के बड़े ही कम किस्से हैं ।
वर्तमान बीजेपी सरकार भी अपने उपलब्धि से ज्यादा विपक्ष के पुरानी गलती और खामी पर ही ज्यादा बात करता है । बांकी मोदी जी राजनारायण होंगे या चुनौतियों से लड़कर विकास की नई इबादत लिखेंगे यह तो समय बताएगा ।