बिहार विधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी राजद सबसे संकट के दौर से गुजर रहा है। 79 विधायक वाला राजद को नेतृत्व नहीं मिल रहा है। विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव विधान सभा की कार्यवाही में शामिल नहीं हो रहे हैं। सबसे बड़े दल के पास पार्टी का पक्ष रखने के लिए एक कायदे का व्यक्ति नहीं है। तथाकथित पार्टी के पुराने नेता विवादित बयान दे रहे हैं या चुप बैठे हैं। पार्टी के अंदर ही राग अलग और ताल अलग।
राजद ने चुनाव के पहले 5 पार्टियों का महागठबंधन बनाया था। इसमें से राजद, कांग्रेस और रालोसपा के पास पार्टी के नाम पर संगठन का ढांचा है, लेकिन हम और वीआईपी एक-एक व्यक्ति की पार्टी है। जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी से पार्टी शुरू होती है और वहीं खत्म हो जाती है। पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के पास संगठन में पदाधिकारी के नाम पर उनके पुत्र संतोष कुमार सुमन भी हैं। लेकिन मुकेश सहनी के बाद पार्टी में कोई दिखता भी नहीं है।
हम बात कर रहे थे तेजस्वी यादव की। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद तेजस्वी राजनीतिक रूप से लगभग निष्क्रिय हो गये। कभी-कभार सक्रिय होते दिखे, लेकिन फिर निष्क्रियता बढ़ गयी। इस कारण सहयोगी दल भी उनके खिलाफ मुखर होने लगे। मुख्यमंत्री उम्मीदवार की संभावना पर भी सवाल उठाये जाने लगे हैं। तेजस्वी खुद नेतृत्व से पीछे हटने लगे।
पिछले महीने महागठबंधन के नेताओं की बैठक हुई थी। बैठक के बाद मीडिया के लिए प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी थी। उस विज्ञप्ति में तेजस्वी के नाम से कोई बात नहीं कही गयी थी। विज्ञप्ति में बैठक में हुई चर्चा का ब्योरा था और नीचे प्रमुख नेताओं का नाम अंकित था। यह इस बात का प्रमाण था कि तेजस्वी महागठबंधन के नेता नहीं हैं, बल्कि विभिन्न पार्टियों के नेताओं में से एक हैं।
लोकसभा चुनाव में तेजस्वी महागठबंधन के स्टार प्रचारक थे। इस प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने कम से कम चार दिनों की निर्धारित सभाओं को कैंसिल कर दिया था। चुनाव परिणाम आने के बाद दो माह तक ‘लापता’ रहे। उसके बाद कभी-कभी जमीन पर आये, अन्यथा ऑनलाइन की नजर आये। अब भी कभी-कभार ट्विटर पर ट्विट कर ‘उड़’ जा रहे हैं। लेकिन यह उड़ान अब तेजस्वी को भारी पड़ने लगी है। मुख्यधारा की राजनीति से वे हाशिए की ओर बढ़ रहे हैं। हाल ही में कांग्रेस मुख्यालय सदाकत आश्रम में महागठबंधन के घटक दलों की बैठक हुई थी। इसमें तेजस्वी नहीं गये। पार्टी प्रतिनिधि के रूप विधायक कुमार सर्वजीत को भेज दिया। इस बैठक में नेताओं ने कहा कि समय आने पर घटक दल महागठबंधन के नेता या मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चुनाव कर लेंगे। इस बीच जीतनराम मांझी के स्वर भी बदलने लगे हैं।
तेजस्वी यादव का उपमुख्यमंत्री बनना या नेता प्रतिपक्ष बन जाना एक राजनीतिक घटनाक्रम था। लालू यादव की राजनीतिक ताकत की अभिव्यक्ति भी थी। नेता प्रतिपक्ष के पद पर उन्हें अभी कोई चुनौती नहीं मिल रही है, लेकिन महागठबंधन के नेता के रूप में सहयोगी दलों ने नकारना शुरू कर दिया है। देर-सबेर पार्टी के अंदर भी विद्रोह की आवाज उठेगी।
तेजस्वी यादव को अब ‘छत्रछाया’ की राजनीति से बाहर निकलना होगा। संगठन की ताकत को मजबूत बनना होगा। यहीं से उन्हें संजीवनी मिलने की संभावना है। अब उनके पास इंतजार करने का समय नहीं है। न्यायिक और कानूनी उलझनों के बीच तेजस्वी यादव को पार्टी के लिए समय निकलना होगा, कार्यकर्ताओं को समय देना होगा, संगठन पर ध्यान देना होगा, तभी उनकी राजनीति को नयी ऊर्जा, नयी जमीन और नयी उड़ान भरने के लिए जगह मिलने की संभावना है। अन्यथा, समय अपना विकल्प खोज लेता है।
विरेन्द्र यादव, पटना के सियासी गलियारों के वरिष्ठ पत्रकार हैं । विरेन्द्र यादव न्यूज नाम से साप्ताहिक पत्रिका निकालते हैं, तथा राजनीति पर अपनी पैनी नजर रखते हैं । ये लेखक के निजी विचार हैं ।