शौच के बाद दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरीकों से सफाई करने का चलन है। जहां अमेरिका और ब्रिटेन जैसे ज्यादातर बड़े पश्चिमी देशों में टॉयलेट पेपर का ही इस्तेमाल होता है तो वहीं चिली, अर्जेंटीना जैसे कुछ लैटिन अमेरिकी देशों और इटली, फ्रांस जैसे कुछ यूरोपीय देशों में पानी इस्तेमाल करने का भी चलन है। लेकिन अब पश्चिमी देशों में कोरोना वायरस के तेजी से फैलते संक्रमण के दौर में शहर से लेकर देश तक ऐसे बंद करने पड़े हैं कि जरूरी चीजों की खरीदारी कर तमाम लोगों को घर बैठना पड़ रहा है। ऐसे में सुपरमार्केटों में टॉयलेट पेपर वाले रैक फटाफट खाली हो जा रहे हैं। ऐसी संकट की स्थिति में पश्चिमी देशों में भी पेपर के बजाय पानी से धोने का आइडिया सोशल मीडिया के माध्यम से लोकप्रिय हो रहा है।
टॉयलेट सीट में पानी से धोने की व्यवस्था करने में फ्रांस सबसे आगे रहा। सन 1710 में ही फ्रांस ने ‘बिडेट’ का आविष्कार कर दिया, जो कि आज कल के वेस्टर्न टॉयलेट में लगी पाइप का सबसे पहला प्रारूप माना जाता है। फ्रांस और इटली में आज भी कई जगह टॉयलेटों में दो सीट लगी होती है। एक शौच करने के लिए और दूसरी गर्म और ठंडे पानी की फुहार छोड़ने वाली। इसके अलावा मध्य पूर्व में भी शरीर को साफ करने के लिए केवल पानी के इस्तेमाल का ही चलन रहा है और कागज के इस्तेमाल के लिए बाकायदा फतवा जारी होने का जिक्र मिलता है जिसमें कहा गया कि जरूरत पड़ने पर इस्लाम में इसकी अनुमति है। इसलिए पानी से धोने के आइडिया के मूल रूप से भारतीय होने का दावा नहीं किया जा सकता।
गरीब हों या अमीर, लगभग सभी भारतीयों के लिए शौच के बाद पानी से धोना ही एकमात्र तरीका रहा है। वहीं भारत के पड़ोसी देश चीन में दूसरी सदी ईसा पूर्व में हुए कागज के आविष्कार के बाद सन 589 में टॉयलेट में पेपर के इस्तेमाल का पहला सबूत कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों में मिलता है। चीन में टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल यूरोप से कई सदी पहले से होने लगा था। पेपर बनाने की तकनीक भी चीन से मध्य पूर्व के रास्ते होते हुए 13वीं सदी में यूरोप पहुंची थी। महंगी होने और मुश्किल से मिलने के कारण पेपर का इस्तेमाल टॉयलेट में करने के बारे में 18वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के समय तक यूरोप में सोचा भी नहीं जा सकता था। सन 1883 में यूरोप में पेपर टॉयलेट डिस्पेंसर का पहला पेटेंट आया और इसके आठ साल बाद अमेरिका में ऐसा पहला प्रोडक्ट पेटेंट हुआ। तबसे सस्ता होने के कारण इसकी खपत बढ़ती ही गई और आज टॉयलेट पेपर रोल के इस्तेमाल में अमेरिका विश्व में सबसे आगे है।
तमाम ऐतिहासिक पहलुओं के अलावा एक पहलू पर्यावरण का भी है। पेड़ों के पल्प से पेपर बनाने की तकनीक से ही इस समय दुनिया का ज्यादातर कागज बनता है। दस रोल का एक पैकेट बनाने में करीब 37 गैलन पानी की खपत होती है। यानि पेड़ों और पानी जैसे कीमती प्राकृतिक संसाधनों का इसमें भारी इस्तेमाल होता है। लेकिन यह तुलना करना भी जरूरी है कि अगर टॉयलेट में धोने के लिए भी पानी का इस्तेमाल होने लगता है तो क्या वह पेपर की लागत से कम होगा।
कोविड-19 की ही तरह पहले भी विश्व में कई महामारियां फैल चुकी हैं। सन 1918 में फैले स्पैनिश फ्लू की चपेट में आने से 7,00,000 लोग मारे गए थे। तब भी अमेरिकी दुकानों में हैरान परेशान लोगों को जरूरी चीजों और दवाइयों की भारी खरीद करते देखा गया था। उस समय ऐसा एक षड़यंत्र वाला सिद्धांत चला था कि उस बीमारी का वायरस जर्मनी द्वारा विकसित किए जा रहे एक जैव-हथियार के लीक हो जाने के कारण फैला। इस बार भी कोरोना के मामले में भी एक मिथ्या धारणा फैली थी कि वायरस चीन द्वारा बनाए जा रहे किसी बायोवेपन का नतीजा है। ऐसी अफवाहों, चिंता और अफरातफरी के बावजूद कई विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही अभी दुकानों से जरूरी चीजों के खाली होने या फिर लगभग लूट मच जाने की स्थिति दिख रही हो लेकिन पहले भी जब कोई बड़ी मुसीबत आई है तो लोगों ने बढ़ चढ़ कर इंसानियत और एकजुटता दिखाई है। इसलिए बेहतर होगा अगर सोशल डिस्टेंसिंग की सलाह को मानते हुए सोशल मीडिया से जुड़े रहा जाए, क्या पता नमस्ते और शौच के बाद धोने के अलावा बाकी दुनिया से कुछ और भी बेहतर साझा करने का मौका मिल जाए।