बिहार रैलियों को प्रदेश है। यहां की राजनीति रैलियों से तय होती रही है। खास कर लालूजी ने रैली को, रैला और फिर महारैला तक बना दिया। उनके जमाने में किस्म किस्म की रैलियां हुआ करती थीं। भूत भगावन रैली से लाठी पिलावन रैली तक। ये रैलियां गांव के गरीब लोगों के लिये फ्री में पटना घूमने का जरिया हुआ करती थी। लोग बसों, जीपों और ट्रेनों पर लद कर रहते, पटना में अपने अपने विधायकों के बासा पर ठहरते। रात भर बाई जी या लौंडा का नाच चलता, पूरी सब्जी, बुनिया का भोज चलता। दिन में कदमताल करते हुए सबलोग गांधी मैदान को भर देते और लालू जी के भाषण के बाद चिड़ियाघर घूमते, स्टेशन के सामने से बच्चों के लिये कपड़े और सामान खरीदते। रात में फिर बस या ट्रेन पर लद कर लौट जाते। मगर ये रैलियां, शहरियों, रेल यात्रियों, बस वालों और लोकल दुकानदारों के लिये मुसीबत का सबब होती। दुकानदारों से जबरन चन्दा वसूला जाता, जबरन गाड़ियां कब्जा ली जातीं। रेल की सभी बोगियों पर रैली वाले काबिज हो जाते। पटना में रैली वाले दिन लोग का घूमना फिरना मुश्किल हो जाता। सब घरों में कैद हो जाते।
खैर वह जमाना चला गया। फिर भाजपा-जदयू का जमाना आया। इसमें रैली करना भाजपा वालों की जिम्मेदारी बन गयी। उनके पास पैसा था और है। वे गाड़ी से लेकर लोगों तक का इंतजाम पैसों के बल पर करने लगे। उनके लोकल नेता तो कोई रैली करने की क्षमता नहीं रखते। मगर वाजपेयी से लेकर मोदी तक की रैलियों में खूब भीड़ जुटती रही है।
मगर पिछले 15 साल से बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले नीतीश कुमार ने कभी रैली करने की हिम्मत नहीं जुटाई। क्योंकि उन्हें पता था कि उनके नाम में वह करिश्मा नहीं है कि लोग उन्हें सुनने गांव-गांव से राजधानी पटना पहुंच जाएं। न ही उनके कार्यकर्ताओं में इतना गट्स है कि लोगों को बटोर कर ले आये और गांधी मैदान को भर दे। इसलिये आज के आयोजन को भी जदयू ने रैली के बदले कार्यकर्ता सम्मेलन का नाम दिया। मगर राज्य के हर वार्ड से उनके एक एक कार्यकर्ता भी आ जाते तो आज तस्वीर वह नहीं होती जो आज गांधी मैदान में दिखी।
यह तस्वीर इसलिये भी शर्म का सबब बन गयी, क्योंकि दो रोज पहले इसी गांधी मैदान में संविधान बचाओ-नागरिकता बचाओ रैली हुई थी जिसमें कन्हैया जैसे नए लड़के को सुनने आयी भीड़ ने गांधी मैदान का एक तिहाई हिस्सा भर दिया था।
आज के कार्यकर्ता सम्मेलन को लेकर शहर में जितने फ्लेक्स लगे हैं, लगता है आज के आयोजन में उतने लोग भी नहीं आये हैं। मुमकिन है आज की रात इस सवाल पर नीतीश जी विचार करेंगे। क्योंकि अपने तर्क और कुतर्क से वे भले इसे जैसे भी जस्टिफाई कर लें, मगर आज के शक्ति प्रदर्शन में जो उनका फेल्योर है वह एनडीए गठबंधन में उनकी बारगेनिंग पॉवर को घटाएगा।
मगर मूल सवाल यह है कि 15 साल राज करने के बाद भी नीतीश राजनेता क्यों नहीं बन पाए हैं। क्यों उनके नाम पर कोई भीड़ नहीं जुटती। क्यों उनके पास कार्यकर्ताओं का नेटवर्क तक खड़ा नहीं हो पाया है। ले देकर उनके पास एक छवि है, काम करने वाले नेता की, जिसके सहारे वे कभी भाजपा तो कभी राजद के कंधे पर सवार होकर चुनाव की बैतरणी पार कर जाते हैं।
उसकी एक सकारात्मक वजह तो जरूर है कि उन्होंने न राजद की तरह कभी जात की राजनीति की और न भाजपा की तरह धर्म की। उन्होंने पहले कोशिश की कि काम के बल पर वे लोगों के बीच पॉपुलर हो जाएं। मगर ऐसा हुआ नहीं। लोगों ने नीतीश को पसंद तो किया मगर अपना नेता नहीं माना।
फिर उन्होंने महिलाओं के वोट बैंक खड़े करने की कोशिश की। यह सच है कि गरीब तबके की महिलाओं और अन्य पिछड़ी छोटी जातियों में उनका ठीक ठाक क्रेज है। मगर ये लोग वोकल नहीं हैं। रैली वगैरह में नहीं जाते। गांव में भी दब कर ही रहते हैं।
कार्यकर्ताओं के नाम पर इनके हिस्से में सिर्फ छोटे बड़े ठेकेदार हैं। जिन्हें इनसे कोई ठेका लेना होता है। ये न बहुत पोलिटिकली एक्टिव रहते हैं, न ही इनकी अपने ही समाज में कोई पैठ होती है।
ये पार्टी के अध्यक्ष हैं, मगर इनमें संगठन क्षमता नहीं है। ये आमलोगों से घुलते मिलते नहीं हैं। जैसे लालू जी को छोटे छोटे कार्यकर्ताओं का नाम याद रहता है, इन्हें शायद ही रहता हो। ये खुद तो संगठनकर्ता नहीं ही हैं, न इन्होंने अपनी पार्टी में किसी ऐसे व्यक्ति को यह जिम्मा भी दिया है। अभी इनकी पार्टी के सर्वे सर्वा आरसीपी सिंह की कार्यकर्ताओं के बीच कोई अच्छी छवि नहीं है। आरसीपी का काम सिर्फ फंड मैनेजमेंट हैं। वशिष्ठ बाबू बूढ़े हो चुके हैं। ललन सिंह को उनकी अपनी जाति के लोग ही पसंद नहीं करते। बिजेंद्र यादव भी लोगों से अब उतना घुलते मिलते नहीं हैं। वे अब पार्टी की कोर टीम में शायद हैं भी नहीं। नए लोगों की जमीन पर कोई पकड़ नहीं है। ऐसे में पार्टी का संगठन के तौर पर कमजोर रहना और लोगों के बीच पकड़ न होना स्वाभाविक है। इसलिये आज के आयोजन में लोगों की भीड़ स्वाभाविक थी, ज्यादा भीड़ होती तो चर्चा का विषय होती।
पुष्य मित्र : जाने माने पत्रकार, लेखक, चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता । चमकी बुखार से लेकर पटना बाढ़ तक में सबसे सक्रिय । रेडियो कोसी, जब नील का दाग मिटा जैसे पुस्तकों के लेखक । फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन ।