आज भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह का जन्मदिन है। जसवंत अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की पीढ़ी के नेताओं में शुमार हैं। वर्षों तक भारतीय सेना में रहे जसवंत सिंह की पढ़ने लिखने में भी रूचि रही है। उन्होंने भारत के विभाजन पर एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है ‘जिन्ना भारत विभाजन के आईने में’। वैसे इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण देश विभाजन के कारणों और उसकी क्रोनोलॉजी की जानकारी पहले से रही है लेकिन इसमें उसकी विस्तृत जानकारी है और कुछ नई भी मिली है।
इस लेख में उनकी किताब से तथ्य लेकर देश विभाजन को समझाने की कोशिश की गई है। जिस तरह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन में लार्ड डफरिन की भूमिका रही थी ठीक वैसी ही भूमिका अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग के गठन में भी अदा की थी। अंग्रेज़ों ने ही पर्दे के पीछे से मुस्लिम जमीदारों व नवाबों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देने के लिए मुस्लिम लीग बनवाई थी। इसके बाद बांटों और राज करो की नीति के तहत लीग को उसकी ताकत से अधिक महत्व देकर कांग्रेस के समानांतर खड़ा करने में हरसंभव मदद की।
सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल का विष दंत
पृथक मताधिकार और अलग निर्वाचक मंडल 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार और अलग निर्वाचक मंडल बना दिए गए। मुसलमानों को उनकी साम्राज्य के प्रति सेवा के इनाम के तौर पर उन्हें उनकी संख्या से अधिक प्रतिनिधित्व दे दिया गया। इस कदम का कांग्रेस को जोरदार विरोध कर आंदोलन चलाना चाहिए था., लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ। जवाहर लाल नेहरू ने भी हालांकि इस चाल को पहचाना था। उन्होंने लिखा था कि शताब्दी से चली एकता और मिलने के किए गए सारे प्रयासों को पलट दिया गया। इसके बाद सिखों को 1919 तथा 1935 हरिजनों को भी अलग प्रतिनिधित्व दे दिया गया।
मुस्लिम लीग बना ब्रिटिश हुकूमत का मोहरा
वहीं इसके कुछ साल पहले 1906 में ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना की गई थी। 1909 के इस विनाशकारी निर्णय ने मुस्लिम लीग को अच्छा खाद पानी दिया। धीरे-धीरे मुस्लिम लीग ताकतवर होती गई। मोहम्मद अली जिन्ना शुरू में कांग्रेस के नेता थे। वे राष्ट्रवादी भी थे यहां तक की गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें हिंदी मुस्लिम एकता का राजदूत बताया था। लेकिन बाद के दौर में अलगाववाद की राह पकड़ ली।
17 दिसंबर 1924 को लाला लाजपत राय ने सांप्रदायिक निर्वाचक मंडलों की भर्त्सना करते हुए जिन्ना को सांप्रदायिक मुसलमान पार्टी के रंगरूट के रूप में लताड़ा था। पूर्ण अधिकारों के लिए मुसलमानों की जिद की सख्त आलोचना करते हुए ट्रिब्यून में 13 लेख लिखे थे। उन्होंने पाठकों को चेताया कि एक बार सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों को स्वीकार कर लिया गया तो गृह युद्ध के बिना इन्हें कभी समाप्त नहीं किया जा सकेगा। इसे स्वीकार करना हिंदू भारत और मुस्लिम भारत में विभाजित कर देना है। लाला लाजपत राय ने लखनऊ समझौते में कांग्रेस की भूमिका की भीभर्त्सना की और सभी प्रांतों के हिंदुओं के लिए जारी परिपत्र में कहा कि हिंदू महासभा को ही अपना राजनीतिक प्रवक्ता बनाएं।
संयुक्त प्रांत के चुनाव के बाद बढ़ी दरार
1937 के चुनाव में संयुक्त प्रांत वर्तमान उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 144 सीटों में से 134 पर जीत हासिल की। वहीं मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए आरक्षित 36 पर चुनाव लड़ा और 29 पर जीत हासिल की। कांग्रेस के टिकट पर एक भी मुसलमान नहीं जीता। यह भविष्य के लिए खतरनाक संकेत था। कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए आरक्षित केवल 9 सीटों पर चुनाव लड़ा था और शेष सीटें मुस्लिम लीग के लिए छोड़ दी थी।
संयुक्त प्रांत में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला था इसलिए उसने लीग के मंत्रियों को कैबिनेट में शामिल करने के लिए कई शर्ते रखी इसलिए खलीकुजमा ने उन्हें वापस बुला लिया। मौलाना आजाद ने मुस्लिम लीग के कांग्रेस में विलय का प्रस्ताव दिया था जिसे खलीकुजमा ने इन्कार कर दिया था। कांग्रेसी ने बंगाल में एक भी मुस्लिम सीट पर चुनाव नहीं लड़ा था।
नेहरू की अदूरदर्शिता
1937 मार्च में हुए चुनाव के बाद नेहरू ने कहा कि भारत में आज केवल दो ही शक्तियां हैं ब्रितानी साम्राज्यवाद और भारतीय राष्ट्रवाद जिसकी प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस है। इस पर जिन्ना ने कहा कि नहीं तीसरी पार्टी भी है मुसलमान और इतिहास जिन्ना को सही साबित करने वाला था।
1937 के चुनाव में संयुक्त प्रांत में कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त करने के बाद लीग का सहयोग का प्रस्ताव नहीं मानकर अकेले सरकार बनाई। मौलाना आजाद ने इंडिया विन्स फ्रीडम में लिखा कि लीग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता तो व्यावहारिक उद्देश्य की खातिर मुस्लिम लीग का कांग्रेस में विलय हो जाता। जवाहर लाल नेहरू के कार्रवाई ने संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग को नया जीवन जीवनदान दिया और लीग पुनर्जीवित हुई।
1940 में जिन्ना ने पहली बार विभाजन की बात की
1940 अक्टूबर में जिन्ना ने पहली बार भारत विभाजन की औपचारिक रूप से लार्ड लिनलिथगो के सामने जिक्र किया था। नवंबर 1940 को सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों में जो सरकार थी उसने इस्तीफा दे दिया। इससे लिनलिथगो को अब कांग्रेस को तुष्ट करने की जरूरत नहीं रही। वह मुस्लिम लीग को ही तवज्जो देने लगे। जिन्ना ने खुद इसका जिक्र किया है युद्ध शुरू होने के बाद मेरे साथ वैसा ही व्यवहार किया गया जैसा कि श्री गांधी के साथ। इस पर मैं अवाक रह गया अचानक मेरी तरक्की क्यों हो गई और मुझे बिल्कुल गांधी के बराबर स्थान क्यों दिया जा रहा है। कांग्रेस असहयोगी थी इसलिए वायसराय को उसकी मांगों का तोड़ निकालने के लिए मुस्लिम लीग को प्रतिद्वंदी के रूप में शक्तिशाली बनाना आवश्यक हो गया था।
लॉर्ड लिनलिथगो ने जिन्ना के साथ हुई वार्ता का सारांश जेटलैंड सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को भेजा था। इसमें उन्होंने लिखा कि कांग्रेस के दावों के विरुद्ध खड़े होकर जिन्ना ने अमूल्य सहयोग दिया है यदि जिन्ना ने कांग्रेस की मांग का समर्थन किया होता तो मेरे और हिज मैजेस्टी की सरकार के सामने बहुत बड़ा संकट पैदा हो सकता था। इसलिए मैंने सोचा कि मैं उनकी स्थिति का फायदा उठा सकता हूं।
मुस्लिम लीग ने लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग रखी थी
सेंट्रल लेजिसलेटिव असेंबली के लिए दिसंबर 1946 को चुनाव हुआ ।मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी सीटें जीत ली और वह भी 90% वोट पाकर। जिन्ना ने चुनाव से पहले अपील की थी कि मुस्लिम उम्मीदवारों के पक्ष में डाला गया एक-एक वोट पाकिस्तान बनाने में मददगार साबित होगा।
कांग्रेस ने सामान्य 62 सीटों में से 57 सीटें जीती थी। प्रांतीय चुनाव में भी मुस्लिम लीग ने उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत को छोड़कर सभी मुस्लिम बहुल प्रांतों में जीत हासिल की। उसने मुस्लिमों के लिए आरक्षित 90% सीटों पर विजय प्राप्त की लेकिन मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटें इतनी अधिक नहीं थी कि मुस्लिम खुद अपने बूते सरकार बना सके।
कलकत्ता से डायरेक्ट एक्शन का खून-खराबा
पाकिस्तान बनाने की बेताबी में 1946 जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन की बंदूक दाग कर कोलकाता में मुस्लिम लीग के गुंडों को खून-खराबे का लाइसेंस दे दिया। यहां याद दिलाना होगा कि बंगाल में उस समय मुस्लिम लीग की मिलीजुली सरकार थी। इस दंगे की आग देश के अन्य भागों में भी फैली। खासकर पंजाब और बंगाल में दंगों की बाढ़ आ गई। लाखों बेगुनाह लोग मारे गए जिनमें बच्चे, महिलाएं, वृद्ध भी शामिल थे।
आखिरकार विभाजन की लकीरें खींच दी गईं। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि मुस्लिम लीग ने कोलकाता में डायरेक्ट एक्शन के नाम पर जो दंगों की श्रृंखला शुरू की थी वो अगर अमेरिका के गृहयुद्ध की माफिक हो जाता तो बेहतर होता। इसमें एक पक्ष इस बात के लिए लड़ता कि देश का विभाजन ना हो। लेकिन दुर्भाग्य से उस समय केवल बेवजह की मारकाट में लाखों लोग मारे गए और देश का विभाजन भी हो गया।
दंगे नहीं रुके
वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों के लिए अलग देश बन जाने के बाद भी भारत में दंगे नहीं रुके। आजादी के बाद से दर्जनों बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए हैं तथा छोटे-मोटे दंगों की संख्या तो सैकड़ों है। इस तरह से हमारे देश में अलगाव की विषबेल हमेशा ही जीवित रही है और विभिन्न राजनेता तथा कïट्टपंथी धार्मिक नेता अपने फायदे के लिए इसे खाद-पानी देते रहे हैं। ऐसे में अगर हमें अपने देश को सचमुच एक आधुनिक और विकसित राष्ट्र बनाना है तो सांप्रदायिकता के इस जहर को मिटाना होगा। सभी देशवासियों को तहेदिल से यह मानना होगा कि उनका देश सचमुच सारे जहां से अच्छा है और इसके भलाई और विकास में सभी अपना योगदान दें।
इससे भी अधिक नुकसानदेह यह बात हुई की नफरत और अलगाववाद की बुनियाद पर पड़ोस में जो नया मुल्क बना उससे भारत के रिश्ते पहले दिन से ही तनावपूर्ण रहे। 1947 में कश्मीर में कबिलाइयों की आड़ में कब्जा किया था। इसके बाद 1965 और 1971 में भी पाकिस्तान के साथ पूर्ण युद्ध हुए। 1971 में पाकिस्तान की करारी हार के बाद बांग्लादेश का निर्माण हुआ। इसके बाद 1999 में करगिल में भी लड़ाई हुई।
( लेखक नवीन शर्मा है, प्रख्यात आलोचक और फिल्मी दुनिया से जुड़े हैं । यह लेखक के अपने निजी विचार हैं)