आज-कल फेसबुक पर अजीब तरह का घमर्थन चल रहा है । करवा चौथ करने वाले मैथिल फेसबुक पर ज्ञान दे रहे हैं कि सावन में मछली नहीं खाना चाहिये । लेकिन कट्टर मैथिलों का मानना है कि यह सब प्रोपेगेंडा है । मछली किसी भी महिने में खाने पर मनाही नहीं है । इसी संदर्भ में मैथिली के प्रसिद्ध व्यंगकार और कथाकार हरिमोहन झा ने भी अपने खट्टर ककाक के तरंग में सविस्तार लिखा है । खट्टर कका का मानना है कि मीन अर्थात मछली हरेक मौसम हरेक दिन खा सकते हैं । आईये जानते हैं क्या है खट्टर कका का मानना ।
हम पूछे – क्या खट्टर कका, मछली खाना चाहिये ?
खट्टर कका बोलें – अवश्य, अवश्य । कोन सा मछली है ? नीबू है कि अपने बगीचे से लेते आएं?
हम बोलें – केवल सिद्धान्त की दृष्टी से पूछे हैं ।
खट्टर कका बोलें – तब तो महा अनर्थ कर दिये। भोजन के समय किसी से पुछिये कि, दही खाएंगें ? और पीछे कहिये कि केवल सिद्धान्त की दृष्टी से पूछ रहे हैं तो ये कोई अच्छी बात नहीं है ? अगर मछली का गप करना हो तो सिद्धान्न की दृष्टी से करना चाहिये ।
हम – एक वैष्णवजी आए हुए हैं जो सभ लोगों को कंठी बांधने के लिये कह रहे हैं ।
ख० – पहले ये बताइये उनके इष्टदेवता रामचन्द्र जी कभी कण्ठी बांधे हैं ? देखिये रामायण में विवाह के समय क्या कहा गया है –
“मीन पीन पाठीन पुराने, भरि-भरि भर कहारन आने ॥”
महाराज राम को तो मृग से भी प्रेम था । क्षत्रिय होकर शिकार नहीं करते , मांस नहीं खाते तो क्या बकरी का दूध पीकर रहतें?
अन्नशाक-प्रियः शूद्रो वैश्यो दुग्धदधिप्रियः ।
मत्स्यमांस-प्रियः क्षत्री ब्राह्मणो मधुरप्रियः ॥
और सीताजी तो आजन्म सौभाग्यवती रहीं । मछली क्यों छोड़ती?
हम – वैष्णवजी का सिद्धान्त है कि मछली किसी को भी नहीं खाना चाहिये ।
ख० – तब क्या खाना चाहिये ? काँटा ?
हम – वो मछली को अखाद्य समझते हैं ।
ख० – वो किसलिये ?
हम – उसमें जीव है इसलिये।
ख० – जीव तो वनस्पती में भ होता है। तब क्या मिट्टी खाएं ।
हम – अन्न और दूसरे फल की बात हो रही है।
ख०- दूसरी बात क्या होती है?
हम – उसमें चैतन्य प्रस्फुटित नहीं रहता है।
ख०- वो तो अंडा में भी नहीं रहता है।
हम – वैष्णवजी का कहना है कि मनुष्य स्वभावतः निरामिषभोजी है ।
ख०- कदापि नहीं। यदि मनुष्य स्वभावतः निरामिषभोजी रहता तो मछली को देखकर ही गाय-भैस की तरह सूंघ कर छोड देता । खाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।
हम – तब आपका क्या विचार है ?
ख०- विचार यही कि हम लोग भेड़ बकरी के श्रेणी में नहीं हैं।
हम – अर्थात मांसाहारी हैं, शाकाहारि नहीं ?
खट्टर कका बोंले – एक जगह पाहुन बनकर गएं । तो उन्होनें पूछा दूध खाएंगे कि दही? हमने उत्तर दिया – ‘दही- दूध में परस्पर विरोध का सम्बन्ध तो है नहीं । अगर संभव हो तो दोनो ले आईये ।’ उसी प्रकार मांस और साग में तो कोई विरोध नहीं है। हमलोग उभय भोजी प्राणी हैं । दूध और मछली दोनो में कोई बुरा नहीं है । मछली भी ठीक साग भी ठीक ।
हम – वैष्णवजी दॉंत की रचना सॅं सिद्ध कर रहे हैं कि मनुष्य बंदर जैसे सुद्ध फलाहारी जीव है । मांस खाने योग्य हमलोगों का दांत है ही नहीं ।
ख० – नहीं है तो खाते कैसे हैं? हम जो मछली खाते हैं वो क्या बिल्ली का दांत उधार लेकर खाते हैं? जहाँ तक दाँत का प्रश्न है, वैष्णवजी को चिन्ता करने की कोई बात नहीं है । हॅं बेदाँत होने के बाद लोग वेदांती बन ही जाता है।
हम – परन्तु शास्त्र के दृष्टि से तो मांसाहार “““
ख० – परम विहित। ‘यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः।’ किस स्मृतिक का प्रमाण चाहिये? मनु याग्यवल्क्य आदि तो खाने योग्य मछली का नाम भी गिनवा गए हैं ।
हम – स्मृतिक बात जाने दीजिये। जीव-दया की दृष्टि से विचार कीजिये ।
ख०- हम अगर दया कर ही दिये तो उससे क्या? बगुला तो दया नहीं करेगा। चील तो नहीं छोडेगा । उसको खाने वाला बहुत जीव-जन्तू है । हमारे मूंह सॅं छूटकर बड़ी मछली या घड़ियाल के मुँह मे जाएगा । इससे मछली का कौन सा उपकार होगा ?
हम- उसका उपकार होगा कि नहीं ये तो नहीं पता लेकिन अपना अपकार तो होगा।
ख०- हमारा क्या अपकार होगा ?
हम- माछ-मांस उत्तेजक पदार्थ होता है। उसको खाने से मन में नाना प्रकार का विकार उत्पन्न होता है । इस सबसे बच जाएंगे ।
ख०- तब सुन्दरी युवती सॅं विवाह नहीं करके लोग अस्सी वर्ष की कुरूपा सॅं विवाह क्यों न करें, जिसको देखकर मन में कोई विकार न उठे।
हम- वैष्णवजी का आशय है कि मछली तामसी भोजन है – हानिकारक।
ख०- आब आप आयुर्वेद पर आ गएं। तब निघंटु उठा कर देखिये कि रोहु , कतरा, मांगुर आदि मत्स्य के क्या-क्या गुण है ।
हम- किन्तु खटाइ-मरचाइ आदि डालने के कारण मछली गुरुपाकी भोजन बन जाता है।
ख०- तब तो सबसे लघुपाकी वस्तु होता है साबुदाना। वही उबाल कर खाना चाहिये?
हम- वैष्णवजी एक और युक्ति दे रहे हैं । मछली का उत्कट गंध सिद्ध करता है कि मनुष्य के लिये यह स्वाभाविक खाद्य नहीं है । लोग जबर्दस्ती तेल-मसाला का उपयोग कर उसको खाने योग बना लेते हैं। मछली में यर्थाथ स्वाद रहता तो लोग ऐसे ही खाते?
ख०- तब वैष्णवजी वैसे ही कच्चा सब्जी क्यों नहीं खाते हैं, इतना विन्यास कर क्यों हलवा-पूड़ी जो बनाते हैं । सीधे-सीधे गेहूँ क्यों नहीं फांक लेते ? तेल मसाला क्या केवल मछली में ही डलता है सब्जी में नहीं? तब सब कानून मछली पर ही क्यों?
हम – वैष्णवजी का कहना है कि माछ अपवित्र स्थान में रहता है , अपवित्र वस्तु खाता है इसलिये अखाद्य है ।
ख०- तब वैष्णवजी मधु क्यों खाते हैं? मधु कहाँ कहाँ – जाता है, क्या-क्या चीज पर बैठता है तब उसके शरीर को निचोड़ कर जो बनता है वो हविष्य, फिर तो मछली तो वैसे भी जल-जीव है।
हम- इसका मतलब अहिंसा में आपका विश्वास नहीं है?
ख०- कैसे रहे ? संसार में यहीं देखने को मिल रहा है कि ‘जीवो जीवस्य भक्षणम’ । प्रकृति का नियम ही है कि छोटा जीव बड़ा जीव को खाता है । इचना को पोठा, पोठा को सौरा, सौरा को बुआरी , बुआरी को तिमि, तिमि को तिमिंगल“““““ यही ‘मत्स्य न्याय’ सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। सृष्टि का चक्र ही हिंसा पर चलता है । यदि भक्षक अपने भक्ष सॅं प्रीति करेगा तो खाएगा क्या?
हम- परन्तु इस देश में तो ‘अहिंसा परमो धर्मः’““`
ख०- यही ‘धर्मः’ तो हम लोगों को चौपट कर दिया है । पृथ्वी पर वही जाति जीवित रह सकता है जिसमें भक्षण करने का साम्थर्य हो। यदि अहिंसा का अर्थ होता है भक्ष्य बनकर रहना, तो सभ सॅं बडा अहिंसक है जनेर का पौधा, जो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता है। फिर भी जिसको मन करता है आकर काट लेता है । अरे प्रभु हम ऐसा पौधा बनने के लिये तैयार नहीं है ।
हम- वैष्णवजी का तात्पर्य है कि किसी भी जीव को निरर्थक क्लेश नहीं पहुँचाना चाहिये ।
ख०- हम कहाँ क्लेश देने जाते हैं ? परन्तु जब मछली पककर सामने कटोरा में आ जाए तो उसको छोड़ने से क्या लाभ? उसके कर्म में अगर क्लेश सहना लिखा ही है तो फिर अपने आत्मा को क्लेश पहुँचाने में कौन सा बुद्धीमानी है ?
हम – परन्तु अपने देश के जलवायु, संस्कृति और परम्परा को देखते हुए “`
ख०- माछ खाना परमआवश्यक । खास करके मिथिला और बंगाल की आर्द्रभूमि में । इसलिये मैथिल और बंगाली कुशाग्रबुद्धि होते हैं। कंठी बांधने से बुद्धि कुठित हो जाता है। इसलिये अधिकांश १११ नम्बरवाला संठी (पतली लाठी) जैसा रहता है। यदि सब वैसे ही हो जाए तो बड़े-बड़े पोखर और चौर के मछली का क्या होगा? धार और चौर सब में जो इतना मछली होता है वह व्यर्थ हो जाएगा। देश को कितना भारी आर्थिक नुकसान पहुँचेगा ! लाखों लोगों को जीवीका बंद हो जाएगा । मल्लाह किस पर जाल उठाएगा ? मलाहिन किस चीज का माला पहन सकेगी? कवि लोग क्या खा-खाकर रस भरी पदावली की रचना करेंगे ? मछली गरीब का आहार और अमीर का श्रृंगार है । यह छूट जाए तो अने सनातनी प्रथा का अंत हो जाए। दही मछली का संदेश बंद हो जाएगा । पितृ-कर्म में मछली-मांस का भोज उठ जाएगा। लोक क्या यात्रा करेंगे ? स्त्रीगण जितिया में मडुआ की रोटी किसके साथ खाएगी ? तब सधवा और विधवा लोग कैसे भेद करेंगे ? लोग बगीचे में जमीरी निबूं किसके लिये रोपेंगे ? सरसों का क्या होगा? मछली तलते समय जो अद्भुद सुगंध वातावरण में तैरता है उसका क्या होगा । मैथिल समाज को ऐसा भारी धक्का लगेगा कि मैथिल संस्कृति का आधार शिला चूर्ण हो जाएगा। दड़भंगा बोधगया में परिणत हो जाएगा । और हमलोग बुद्धू (बुद्धदेव के अनुयायी) बनकर जीवन यापन करेंगे ।तब भगवती की पूजा कौन करेगा? भगवान न करें कि मिथिला को कभी ऐसा दिन देखना पड़े। खट्टर कका हाथ जोडकर प्रर्थना करने लगे – हे भगवती! भक्त लोग रामचन्द्रजी के प्रिय निषाद को विषाद के सिन्धु में डुबाना चाहते हैं । उन लोगों को सद्बुद्धी दीजिये ।
पुनः मेरे तरफ देख्कर पुन: खट्टर कका बोलें- हम है जन्म से शाक्त । परम्परा से मीनावतार के उपासक। मेरे चाचा- मट्टर कका – एक भजन गाते हैं उनकी कुछ पंक्ति तुम्हे सुना रहा हूँ ।
“ हरि हरि ! जन्म किएक लेल ?
रोहु माछ क मूड़ा जखन पैठ नहि भेल ?
मोदिनी क पलइ तरल जीभ पर ने देल !
घृत महक भुजल कबइ कंठ में ने गेल !
लाल-लाल झिंगा जखन दांत तर ने देल !
माङ्गुरक झोर सॅं चरणामृत ने लेल !
माछ क अंडा लय जौं नैवेद्य नहिं देल !
माछे जखन छाडि देब, खायब की बकलेल !
सागेपात चिबैबाक छल त जन्म किऎ लेल !” हरि हरि०
हम – धन्य है, खट्टर कका ! एकादशी को भी छोड़ते हैं कि नहीं?
ख०- अजी, मेरा शास्त्र चले तो एकादशी को कौन कहे, एकादशा पर्यन्त नहि छोड़ें। मेरे पाचांग में में तो दो ही दिन है । जाहि दिन मछली मिला उस दिन पुर्णिमा ,जिस दिन नहीं मिला उस दिन अमावस्या ।
हम – अलबत्त ! शाक्त हो तो आपके ऐसा।
खटटर कका बोले । नहीं हम तो शैव ही उतने बड़े हैं । हमेशा बाबा की बूटी के सेवन में लगे रहते हैं । इतना कहकर कका एक आंजुर भांग पी लिये । हम उठकर फेसबुक के मैथिल को समझाने निकल पड़े ।