बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए नामांकन शुरू हो गया है, लेकिन अभी तक नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए में सीट शेयरिंग को लेकर सहमति नहीं बन पाई है. एलजेपी प्रमुख चिराग पासवान ने सीटों का पेच फंसा रखा है और उसे सुलझान में अमित शाह से लेकर जेपी नड्डा तक को मशक्कत करनी पड़ रही है. बिहार में नीतीश कुमार से साथ रहने के बाद भी बीजेपी की आखिर ऐसी क्या मजबूरी है, जो एलजेपी को वो एनडीए में हर हाल में रखना चाहती है?
बिहार में बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन 1996 से चल रहा है, लेकिन 2013 में दोनों की दोस्ती टूट गई थी. नीतीश कुमार के अलग होने के बाद ही 2014 में एनडीए में एलजेपी की एंट्री हुई थी. हालांकि, 2017 में जेडीयू की वापसी के बाद एनडीए की स्थिति बदल गई है. बिहार में 2005 और 2010 वाला एनडीए नहीं बल्कि 2020 में तीन सहयोगी हो गए हैं. वहीं, चौथे जीतनराम मांझी हैं, जिन्होंने सीधे एनडीए में एंट्री करने के बजाय जेडीयू के साथ हाथ मिला रखा है.
जेडीयू-बीजेपी-एलजेपी के बीच रस्साकशी जारी है और सीटों की गुत्थी सुलझ नहीं पा रही है. बिहार की सियासी मजबूरी के चलते एनडीए के तीनों दल एक दूसरे का साथ भी नहीं छोड़ने की हिम्मत जुटा पा रहे और न ही कोई रास्ता तलाश पा रहे हैं. हालांकि, चिराग पासवान के तेवर को देखते हुए जेडीयू ने यह जरूर कह दिया है कि एलजेपी का गठबंधन बीजेपी से है और सीटों को लेकर उसी से बात करें. इस तरह से नीतीश ने एलजेपी को बीजेपी के पाले में डाल दिया है.
बिहार चुनाव से ठीक पहले चिराग पासवान का साथ न छोड़ना बीजेपी की एक राजनीतिक मजबूरी बन गई है. हाथरस कांड के बाद जिस तरह से विपक्ष मोर्चा खोले हुए है और बीजेपी को दलित विरोधी कठघरे में खड़ा कर रहा है. इन सब के बीच बीजेपी चिराग से पीछा छुड़ाती है तो दलित विरोधी करार दिए जाने का खतरा है. इसी के चलते माना जा रहा है कि बीजेपी किसी भी शर्त पर चिराग के साथ ही जाएगी, इसके लिए उसे नीतीश का साथ ही क्यों ना छोड़ना पड़े।