1990 के विधानसभा चुनाव में अरसे बाद कांग्रेस बिहार की सत्ता से बेदखल हो गयी. कांग्रेस के मात्र 71 विधायक चुनाव जीत कर सदन पहुंच पाये. सरकार बनाने के लिए कम- से- कम 161 विधायकों का समर्थन होना जरूरी थी. उन दिनों झारखंड का इलाका बिहार से अलग नहीं हुआ था, इस कारण बिहार विधानसभा में कुल 324 विधायक हुआ करते थे. चुनाव के पूर्व से ही सत्ता परिवर्तन का आभास होने लगा था. विपक्ष में जनता दल मुख्य पार्टी थी. जनता दल के 122 विधायक चुनाव जीत कर सदन आये थे. सरकार बनाने के लिए यह काफी नहीं था. भाजपा के 39 विधायक जीत कर आये थे. भाकपा के 23, माकपा के छह, झारखंड मुक्ति मोर्चा के 19 और छोटी -छोटी पार्टियों के 11 विधायक निर्वाचित हुए थे. जब लालू प्रसाद को विधायक दल का नेता निर्वाचित किया गया और उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया, तो उनके समर्थन में भाजपा के भी 39 सदस्य शामिल रहे.
इस समय केंद्र में भाजपा के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार चल रही थी. इसी तर्ज पर बिहार में भी जनता दल की सरकार को भाजपा का समर्थन मिला. बाद में जब लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान गिरफ्तारी हुई ,तो भाजपा ने केंद्र की वीपी सिंह और बिहार में लालू प्रसाद की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. भाजपा के इस कदम से केंद्र की वीपी सिंह की सरकार तो गिर गयी, लेकिन बिहार में लालू प्रसाद के प्रभाव से भाजपा में विभाजन हो गया. उन दिनों प्रदेश भाजपा के बड़े नेता हुआ करते थे, इंदर सिंह नामधारी. उनके नेतृत्व में भाजपा में टूट हुई. नामधारी का गुट लालू प्रसाद के समर्थन में आया. बाद के दिनों में भाकपा ने भी लालू प्रसाद की सरकार को समर्थन दिया.