‘टाइम कैप्सूल’ एक बॉक्स होता है, जिसमे वर्तमान समय की जानकारियां भरी होती हैं। देश का नाम, जनसँख्या, धर्म, परंपराएं, वैज्ञानिक अविष्कार की जानकारी इस बॉक्स में डाल दी जाती है। कैप्सूल में कई वस्तुएं, रिकार्डिंग इत्यादि भी डाली जाती है। इसके बाद कैप्सूल को कांक्रीट के आवरण में पैक कर जमीन में बहुत गहराई में गाड़ दिया जाता है। ताकि सैकड़ों-हज़ारों वर्ष बाद जब किसी और सभ्यता को ये कैप्सूल मिले तो वह ये जान सके कि उस प्राचीन काल में मनुष्य कैसे रहता था, कैसी भाषाएं बोलता था। टाइम कैप्सूल की अवधारणा मानव की आदिम इच्छा का ही प्रतिबिंब है। अयोध्या में बनने जा रहे राम मंदिर की नींव में एक टाइम कैप्सूल डाला जाएगा।
पाषाण युग से ही मानव की सोच रही है कि वह भले ही मिट जाए लेकिन उसके कार्यों को आने वाली पीढ़ियां याद रखे। इसी सोच ने मानव को इतिहास लेखन के लिए प्रेरित किया होगा। किसी प्राचीन गुफा की खोज होती है तो उसकी दीवारों पर हज़ारों वर्ष पुराने शैलचित्र पाए जाते हैं। ये भी एक तरह के टाइम कैप्सूल ही है, जो एक ख़ास तरह की स्याही से दीवारों पर उकेरे गए थे।
उनकी स्याही में इतना दम था कि हज़ारों वर्ष पश्चात् की पीढ़ियों को अपनी कहानी पढ़वा सके। भारत के प्राचीन मंदिरों में स्थापित शिलालेखों का उद्देश्य यही था, जो आधुनिक काल में टाइम कैप्सूल बनाने वालों का है। भविष्य की पीढ़ियों को वर्तमान के बारे में बताने की ललक ने टाइम कैप्सूल की अवधारणा को जन्म दिया है।
जमीन में गाड़ा गया एक टाइम कैप्सूल बोस्टन में मिला। इसे 1771 में एक हॉल में गाड़ा गया था। ये कैप्सूल सन 2014 में भवन की मरम्मत के दौरान प्राप्त हुआ था। इसमें कुछ पुरानी कलाकृतियां मिली थी। ऐसे ही टाइम कैप्सूल समय-समय पर मिलते रहे हैं। स्पेन और अमेरिका में भी ऐसे कैप्सूल पाए गए हैं। नब्बे के दशक में अमेरिका ने भी कुछ टाइम कैप्सूल जमीन में दफनाए हैं।
अपनी सभ्यता और संस्कृति आने वाले हज़ारों वर्ष तक पृथ्वी पर पहचानी जाए, यही टाइम कैप्सूल की फिलॉसोफी है। प्राचीन काल में शिलालेख और शैलचित्र बनाकर ही काम चल जाता था लेकिन अब मानव और सुरक्षित ढंग से अपनी स्मृतियों को कई सदियों तक सुरक्षित रख सकता है।
भारतवर्ष राममंदिर निर्माण में इस बार बहुत सावधानी बरत रहा है। पिछले गुज़रे सैकड़ों वर्ष के कटु अनुभव ने हमें सिखाया है कि बाबर युग की पुनरावृत्ति दोबारा न हो। राम मंदिर की नींव में टाइम कैप्सूल इसी कारण डाला जा रहा है कि भविष्य में हमें श्रीराम के लिए सबूतों के अभाव में फिर से न्यायालय के चक्कर न काटना पड़े।
कैप्सूल को जमीन में दो हज़ार फ़ीट की गहराई में गाड़ा जाएगा, ऐसा मीडिया समूहों का कहना है लेकिन मुझे लगता है गहराई के आंकड़े देने में उनसे कुछ गलती हो गई है। राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सदस्य कामेश्वर चौपाल ने इस बात की घोषणा की है। उन्होंने बताया कि कैप्सूल एक ताम्र पत्र के अंदर रखा जाएगा।
टाइम कैप्सूल की घोषणा में कुछ तकनीकी त्रुटियां हैं, जिन्हे जल्द दूर किया जाना चाहिए। एक तो दो हज़ार फ़ीट की खुदाई कर कैप्सूल को गाड़ना। इतनी गहराई में गाड़ने से उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।
दूसरा वे कहते हैं कि ‘भविष्य में कोई चाहेगा तो उसे इस मंदिर की पूरी जानकारी कैप्सूल से मिल जाएगी।’ ये किस किस्म की बचकानी पत्रकारिता है। टाइम कैप्सूल सैकड़ों-हज़ारों वर्ष बाद अस्तित्व में रहने वाली पीढ़ी के लिए बनाया जाता है। इसकी जानकारी पाना उस पीढ़ी की इच्छा पर निर्भर नहीं होगा।
ये तो प्रकृति तय करेगी कि उस रहस्य को कब प्रकट करना है। टाइम कैप्सूल पर आपका नियंत्रण उसे गाड़ने भर तक का है, उसके बाद आप अपनी इच्छा से दो हज़ार फ़ीट नीचे जाकर जानकारी कैसे लाएंगे। मूर्खता भारत में मुफ्त बांटी जाती है, इसका ही ये परिणाम है।
अभी स्पष्ट नहीं किया गया कि कैप्सूल में क्या-क्या रखा जाएगा। निश्चित ही इसमें मंदिर के नक़्शे का एक ब्लू प्रिंट रखा जाना चाहिए। अयोध्या का संपूर्ण इतिहास हो। उसके चार बार उजड़ने और फिर बसने की पूरी कथा हो। राम मंदिर को लेकर लड़ी गई लंबी संघर्ष गाथा का उल्लेख हो। यहाँ तक कि कोर्ट में चले कई साल के युद्ध का लेखाजोखा हो।
राम मंदिर निर्माण के लिए प्रयास करने वाले नेताओं का उल्लेख हो। यहाँ तक कि वयोवृद्ध अभिभाषक श्री पारशरण का उनके फोटो के साथ उल्लेख हो। राम सेतु और राम परिक्रमा पथ को स्थान मिले। भारत के जन्म से लेकर वर्तमान की सम्पूर्ण कथा उस कैप्सूल में हो। उस पार्टी का भी जिक्र होना चाहिए , जिसने सत्तर साल तक राम को उनके करोड़ों भक्तों से विमुख रखा था।
उस टाइम कैप्सूल में क्या-क्या रखा जाए, इस पर केंद्र सरकार को भारत के नागरिकों से पूछना चाहिए। उन्हें एक कैंपेन चलाना चाहिए, जिसमे भारत के नागरिकों के साथ विशेषज्ञ अपनी राय दे सके। पुरातत्व के विशेषज्ञों को इसमें खासतौर से शामिल किया जाना चाहिए। इस कैंपेन से एक तो सरकार को नए-नए विचार प्राप्त होंगे, साथ ही इस विषय को लेकर भारत के नागरिकों की जागरूकता और भी बढ़ जाएगी।
प्राचीन काल के मनुष्यों का अपना ढंग था, हमारा अपना ढंग है। उन लोगों का तरीका तो सफल रहा क्योंकि हम उनके कार्यों को, उनके दिए संदेशों को आज समझ और ग्रहण कर पा रहे हैं। हमारा तरीका सफल होगा या नहीं, ये हम कभी जान नहीं सकेंगे, जैसे वे प्राचीन लोग नहीं जान सके।
साभार – इंडिया स्पीक डेली